(सम्पादकीय)अधिकार की सीमा

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(सम्पादकीय)


अधिकार की सीमा

ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच तनाव खत्म नहीं हो रहा।

अधिकार की सीमा
जगदीप धनखड़। ( फोटो-इंडियन एक्‍सप्रेस)।

किसी न किसी बहाने इस पर सरकार की तरफ से टिप्पणी आ ही जाती है। उपराष्ट्रपति ने एक बार फिर दोहराया कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर बने कानून को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किया जाना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।

उन्होंने कहा कि दुनिया में कहीं ऐसा नहीं देखा गया कि संसद द्वारा पारित कानून को किसी दूसरी संस्था ने रद्द कर दिया हो। लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए संसद की स्वायत्तता और संप्रभुता सर्वोपरि है। इसके पहले भी उपराष्ट्रपति इस मुद्दे को रेखांकित कर चुके हैं। कुछ दिनों पहले कानून मंत्री ने भी तल्ख लहजे में कहा था कि अगर सर्वोच्च न्यायालय खुद ही अपनी नियुक्तियां करना चाहता है, तो फिर वह अपनी सिफारिशें भी हमारे पास न भेजे।

दरअसल, सात साल पहले केंद्र सरकार ने संसद में संविधान संशोधन कर ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया था। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे मानने से इनकार करते हुए खारिज कर दिया था। तभी से सरकार और अदालत के बीच तकरार की स्थिति बनी हुई है।

सरकार का तर्क है कि तमाम संवैधानिक संस्थाओं के सर्वोच्च और महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां सरकार करती है। उसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सरकार की सहमति से होनी चाहिए। पहले ऐसा ही हुआ करता था। उसी के मद्देनजर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान किया गया। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान की मूल भावना के अनुरूप न मानते हुए खारिज कर दिया था।

सर्वोच्च न्यायालय को आशंका है कि अगर न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा, तो न्याय प्रक्रिया में बाधा पहुंचेगी और उचित न्याय की संभावना क्षीण होगी। कालेजियम प्रणाली इसीलिए बनाई गई थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ना शुरू हो गया था, जिसे लेकर अंगुलियां उठने लगी थीं। मगर इस प्रणाली को लेकर भी कहा जाता है कि चूंकि जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं, इसलिए उसमें भाई-भतीजावाद चल पड़ा है।

इससे मुक्ति का रास्ता निकालना चाहिए। मगर वह रास्ता क्या हो, इस पर कोई आमराय बन नहीं पा रही। सरकार अपने ढंग से नियुक्ति चाहती है और अदालत को वह तरीका पसंद नहीं। हालांकि कालेजियम प्रणाली के तहत होने वाली नियुक्तियों में भी सरकार के पास नाम भेजे जाते हैं और वह उनमें से वरिष्ठता आदि को ध्यान में रख कर कुछ नामों पर मंजूरी देती है।

मगर अब सरकार अदालत के सुझाए नामों को मंजूरी देने के बजाय लंबे समय तक चुप्पी साध लेती देखी जाती है। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय कई बार नाराजगी जता चुका है। जहां तक कानून को रद्द करने की बात है, विशेषज्ञ कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाए कानूनों की समीक्षा करने और उनके किसी भी रूप में संविधान की मूल भावना के अनुरूप न होने पर उन्हें रद्द करने का अधिकार है।

इसलिए संसद की स्वायत्तता और संप्रभुता का तर्क पूरी तरह ठीक नहीं माना जा रहा। सर्वोच्च न्यायालय का कर्तव्य है कि वह संविधान की मूल भावना की रक्षा करे। यह पहली बार नहीं है, जब किसी कानून के औचित्य पर उसने सवाल उठाए। दोनों के अधिकार अपनी जगह हैं, पर उनकी तकरार से आम लोगों में जो संदेश जा रहा है, वह भी ठीक नहीं।