असुविधा के अस्पताल (सम्पादकीय)

 क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

असुविधा के अस्पताल

किसी भी सार्वजनिक भवन का निर्माण करते समय यह सुनिश्चित करना प्राथमिक और अनिवार्य होना चाहिए कि उसमें किसी शारीरिक बाधा का सामना कर रहे व्यक्ति को आने-जाने में परेशानी न हो।

असुविधा के अस्पताल
सांकेतिक फोटो।

हालांकि बहुमंजिला इमारतों में अब आमतौर पर लिफ्ट या अन्य व्यवस्थाएं की जाती हैं, लेकिन अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिसमें सभी सुविधाओं से लैस कोई भवन बना तो दिया जाता है, मगर उसमें यह ध्यान रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि अगर किसी व्यक्ति के पांवों में दिक्कत है तो उसे ऊपरी मंजिलों पर या कहीं भी सीढ़ियां चढ़ने में किस परेशानी का सामना करना पड़ेगा।

यह अदूरदर्शिता और अव्यवस्था अगर कहीं अस्पतालों तक में दिखती है तो इसे एक विडंबना ही कहा जाना चाहिए। दिल्ली के कुछ अस्पतालों में दिव्यांगजनों के आने-जाने के लिए लिफ्ट या फिर सपाट सीढ़ी यानी रैंप के अभाव की खबर हैरान करने वाली है। सवाल है कि इसके निर्माण से लेकर अब तक इस पहलू पर गौर करना जरूरी क्यों नहीं समझा गया, जबकि अस्पतालों में इस तरह की व्यवस्था को अनिवार्य माना जाना चाहिए।

गौरतलब है कि दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में पुस्तकालय में आने-जाने के लिए दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए लिफ्ट और रैंप जैसी व्यवस्था नहीं की गई है। वर्धमान महावीर मेडिकल कालेज के पुस्तकालय में जाने के लिए दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए विशेष टाइलों वाले रास्ते से लेकर अन्य दिव्यांगजनों के लिए जरूरी सुविधाओं का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा गया है।

इसी तरह दिल्ली के जाने-माने अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दिव्यांगों के लिए अनुकूल शौचालय और अन्य सुविधाओं का अभाव है। किसी अस्पताल में लिफ्ट या रैंप के लिए जगह तो निर्धारित है, मगर सालों से यह सुविधा अधर में लटकी हुई है। इस वजह से किसी तरह की दिव्यांगता से दो-चार विद्यार्थियों को कैसी परेशानी से गुजरना पड़ता होगा, यह समझा जा सकता है। यों सरकारों का दावा हमेशा यही रहता है कि वह समूची आबादी का खयाल रखने के लिए हर संभव प्रयास करती है, मगर ऐसे दावों की हकीकत जमीन पर कुछ और ही होती है।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 में सभी इमारतों को इस दायरे में आने वाले लोगों के लिए सुलभ और अनुकूल बनाने के मद्देनजर पांच साल की समय सीमा दी गई थी। लेकिन अगर आज भी इस मसले पर आधे-अधूरे ढंग से काम हुआ है और इसका खमियाजा दिव्यांग लोगों को उठाना पड़ रहा है, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

विचित्र है कि दिल्ली देश की राजधानी है और यहां के अस्पतालों सहित सभी सार्वजनिक भवन या तो दिल्ली सरकार के तहत आते हैं या फिर केंद्र सरकार के। सभी लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के मामले में दोनों ही सरकारें बढ़-चढ़ कर अक्सर दावे करती रहती हैं। लेकिन क्या कभी इन दावों में यह चिंता भी शामिल रहती है कि अस्पतालों में इलाज के लिए आने वालों से लेकर खुद उस परिसर में कामकाज करने वाले लोग भी किसी शारीरिक असुविधा का सामना कर रहे होंगे।

और उनके लिए विशेष व्यवस्था भी प्राथमिक होना चाहिए? यों बहुत सारी सार्वजनिक इमारतों में अलग से लिफ्ट या सपाट सीढ़ियों की व्यवस्था की गई है, लेकिन आज भी ऐसी तमाम जगहें हैं, जहां इसके अभाव में दिव्यांगजनों को दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। खासतौर पर अस्पतालों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वहां नियमित कामकाज या फिर इलाज के लिए आने-जाने वाले तमाम लोगों के साथ-साथ दिव्यांगजनों को भी कोई दिक्कत न हो, उनके अनुकूल सुविधाओं की व्यवस्था की जाए।