जवाबदेही के बजाय

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141 

जवाबदेही के बजाय

आमतौर पर हादसों को ‘भगवान की मर्जी’ कह कर टालने की कोशिश की जाती है।

जवाबदेही के बजाय
अब जब साफ हो चुका है कि गुजरात के मोरबी में झूलता पुल उसके रखरखाव की जिम्मेदारी संभाल रही कंपनी की घोर लापरवाही की वजह से टूटा, तब भी उस कंपनी के एक प्रबंधक इसकी जिम्मेदारी ‘भगवान’ पर डाल कर मुक्त हो जाना चाहते हैं। ओरेवा नामक कंपनी को इस पुल की मरम्मत, रखरखाव और उस पर लोगों की आवाजाही की व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।


यह काम बिना कोई निविदा आमंत्रित किए दे दिया गया था। ओरेवा दीवार घड़ी, मच्छर मारने का रैकेट और कैलकुलेटर जैसी चीजें बनाने का काम करती है। स्वाभाविक ही सवाल उठा कि उसे पुल की मरम्मत और रखरखाव का काम सौंपा ही क्यों गया। अब यह भी पता चला है कि ओरेवा ने जिस कंपनी की मदद से पुल की मरम्मत कराई, उसे भी झूलता पुल बनाने का कोई अनुभव नहीं था।

उसने केवल मामूली रंग-रोगन करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी। फिर बिना अनापत्ति प्रमाण-पत्र लिए पुल को आनन-फानन में खोल दिया गया। अब फोरेंसिक विभाग की जांच में पता चला है कि पुल जिन लोहे की रस्सियों पर लटका था वे काफी पुरानी हो चुकी थीं, उन्हें जंग खा रहा था। उनमें लोच बिल्कुल नहीं रह गई थी। उनमें लगे नट-बोल्ट जर्जर हो चुके थे। कायदे से उन्हें बदला जाना चाहिए था, मगर ऐसा करना तो दूर, उनमें तेल, ग्रीस आदि लगाने की जरूरत भी नहीं समझी गई। लापरवाही और अनदेखी के इतने सबूत मिलने के बाद भी अगर उस कंपनी के एक प्रबंधक अदालत में खड़ा होकर यह कह रहे हैं कि भगवान की करनी की वजह से पुल टूटा, तो उनकी ढिठाई को समझा जा सकता है।

आमतौर पर हादसों को ‘भगवान की मर्जी’ कह कर टालने की कोशिश की जाती है। कई बार जांचों का सिरा भी इसी बिंदु को पकड़ कर चल पड़ता है। इस तरह ऐसे बड़े हादसों पर परदा डालना आसान हो जाता है। इसलिए साफ है कि कंपनी के प्रबंधक ने नासमझी में उस हादसे का दोष भगवान पर नहीं डाला। ऐसा कहने के लिए उनके वकील ने सलाह दी होगी। इस तरह अदालत का ध्यान भटकाना आसान हो जाता है। कई मामलों में हादसों के पीछे ‘भगवान की मर्जी’ वाला तर्क कानूनी रूप से स्वीकार भी कर लिया जाता है। मगर मोरबी हादसे के पीछे जितने पुख्ता सबूत सामने आ चुके हैं, उन्हें देखते हुए शायद ही यह बात किसी के गले उतरे कि वह पुल संयोगवश टूट गया।

जिस दिन पुल टूटा, उसी दिन से तथ्य उजागर हैं कि ओरेवा कंपनी के मालिक कितने रसूखदार हैं। उन्हें उस पुल के रखरखाव और संचालन का ठेका कैसे मिला होगा। यह भी छिपी बात नहीं है कि पुलों, सड़कों आदि के निर्माण, टोल नाकों पर कर संग्रह आदि के ठेके कैसे लोगों को मिलते हैं। ओरेवा इस मामले में अपवाद नहीं मानी जा सकती।

ऐसे ठेकों में भारी कमीशनखोरी और खराब गुणवत्ता की सामग्री तथा तकनीक इस्तेमाल करने के तथ्य भी छिपे हुए नहीं हैं। फिर जब ऐसे निर्माण और रखरखाव में खामी की वजह से कोई बड़ा हादसा हो जाता है, तो उस ठेके से जुड़े तमाम लोग उस पर परदा डालने में जुट जाते हैं। जांचों को प्रभावित किया जाता है और अंतत: पुख्ता सबूतों के अभाव में दोषी बेदाग करार दे दिए जाते हैं। मोरबी पुल हादसे के मामले में अगर ऐसा न हो, तो एक नजीर कायम हो सकती है।