एक-दूसरे के मतदाताओं को लुभाने में जुटे सभी दल

 क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

एक-दूसरे के मतदाताओं को लुभाने में जुटे सभी दल

दलों के सामने अपने पारंपरिक मतदाताओं को सहेजने की चुनौती और एक-दूसरे के मतदाताओं पर काबिज होने की चाह भी है। इसी को लेकर सभी दल सियासी गुणा-भाग में लग गए हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमान दुविधा में लग रहे हैं। मुसलमान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनका असली शुभचिंतक है कौन? कभी वह समाजवादी पार्टी की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं तो कभी उनकी निगाहें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी की तरफ मुड़ जाती हैं। प्रदेश की 28 लोकसभा सीटों पर हार-जीत का अंतर तय कर पाने की क्षमता के बाद भी संसद में मुसलिम सांसदों की उत्तर प्रदेश से नुमाइंदगी दस फीसद से भी कम रही है।


देश में हुए पहले लोकसभा चुनाव से अब तक उत्तर प्रदेश की सीटों की संख्या की तुलना में मुसलमान सांसदों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वर्ष 1952 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सात मुसलिम सांसद जीत कर संसद तक पहुंचे थे। 1957 में यह संख्या घट कर छह रह गई। जबकि 1962 में पांच और 1967 के लोकसभा के चुनाव में छह सांसद ही जीत पाने में कामयाब हुए। 1971 के लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश से 16 सांसद जीते। वर्ष 1977 में दस, 1980 में 18 सांसदों को जीत हासिल हुई।

1984 में 12, 1989 में आठ, 1991 में सिर्फ तीन, 1996 में छह, 1998 में छह, 1999 में आठ और 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से चुनकर जाने वाले मुसलमान सांसदों की संख्या सिर्फ 11 थी। जबकि 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनाव में भी सिर्फ सात मुस्लिम सांसद उत्तर प्रदेश से जीत हासिल कर पाने में कामयाब हो सके। 2014 से 2019 के मध्य मुसलमान सांसदों की संख्या दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर सकी। राजनीतिक जानकारों की मानें तो सपा मुसलमानों की अलमबरदारी की बात करती है लेकिन अब मुसलमान पेशोपेश में हैं।

बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस भी किसी भी तरह मुसलमान वोटों को अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश में हैं। ऐसे में सवाल ये उठता है कि उत्तर प्रदेश में ऐसा क्या है, जिससे आकर्षित होकर राजनीतिक दलों के आका मुसलमानों को अपने पक्ष में करने पर पूरी ताकत झोंक देते हैं। इसका जवाब यहां की 28 लोकसभा सीटों में छिपा है। इन सीटों पर मुसलमान मतदाताओं का फीसद इतना है कि वे किसी भी दल के प्रत्याशी की हार-जीत की फैसला कर सकते हैं। इनमें रामपुर सर्वप्रथम है, जहां मुसलमान मतदाताओं का फीसद 42 है। मुरादाबाद में 40, बिजनौर में 38, अमरोहा में 37, सहारनपुर में 38, मेरठ में 30, कैराना में 29, बलरामपुर और बरेली में 28, संभल, पडरौना और मुजफ्फरनगर में 27, डुमरियागंज में 26 और लखनऊ, बहराइच व कैराना में मुसलमान मतदाता 23 फीसद है।

इनके अलावा शाहजहांपुर, खुर्जा, बुलंदशहर, खलीलाबाद, सीतापुर, अलीगढ़, आंवला, आगरा, गोंडा, अकबरपुर, बागपत और लखीमपुर में मुसलिम मतदाता कम से कम 17 फीसद है। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि 28 सीटों पर वर्चस्व होने के बाद भी मुसलमान सांसदों की संख्या इतनी कम क्यों है। उधर, बहुजन समाज पार्टी अपने पारंपरिक मतदाताओं को साथ लाने की अथक कोशिश में है। 2014 से उसका मतदाता भाजपा के साथ है।

2019 में सपा से गठबंधन के बाद बसपा को ये भ्रम था कि वो सपा के पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी कर लेगी लेकिन उसने अपने पारंपरिक मतदाताओं का भरोसा भी गंवा दिया। ऐसे में अखिलेश यादव की निगाहें मायावती के मतदाताओं पर है। फिलहाल उत्तर प्रदेश के दो क्षेत्रीय दल सपा और बसपा अपने पारंपरिक वोट बैंक को बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं।जबकि भाजपा को इस बात का इत्मीनान है कि प्रदेश के अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियां उसके साथ हैं। जिसका लाभ आगामी लोकसभा चुनाव में उसे मिलता नजर आ रहा है।