एक-दूसरे से न करें तुलना

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

एक-दूसरे से न करें तुलना
सांकेतिक फोटो।

जब हम ऐसा करते हैं तो हमारे अंदर ऐसे अनेक अवगुण पैदा हो जाते हैं जो हमारी राह मुश्किल बनाते हैं। कई बार हम अपने मन को समझाते हैं कि हम अपनी तुलना दूसरे इनसान से नहीं करेंगे लेकिन मन को समझाने का कोई लाभ नहीं होता है और हम पुन: तुलना करने लगते हैं।


निश्चित रूप से तुलना करना एक मानवीय प्रवृत्ति है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि कुछ मानवीय प्रवृत्तियां न केवल मानवीयता के विरुद्ध होती हैं बल्कि हमारे व्यवहार को भी शक के दायरे में लाती हैं। सवाल यह है कि हमें तुलना करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? हम क्यों इसके बिना नहीं रह पाते हैं? क्या ऐसा करने से हमें आत्मसंतुष्टि मिलती है? निश्चित रूप से ऐसा कर हम अपने मन को समझाने का प्रयास करते हैं।

समस्या यह है कि हमारा मन तुलना करने के बाद भी कुछ समझने के लिए तैयार नहीं होता है और हम इस भंवर में फंसते चले जाते हैं। यह हमारे लिए अशांति का कारण बन जाता है। इसके बाद हम और ज्यादा तुलना करने लग जाते हैं। बाद में यह हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस कमजोरी के बल पर ही हम किला फतह करने के बारे में सोचते हैं लेकिन जल्दी ही यह ढह जाता है।दरअसल हम बचपन से ही तुलना करना सीख जाते हैं।

एक बच्चा दूसरे बच्चे के खिलौनों को देखकर अपने माता-पिता से वैसे ही खिलौने खरीदने की जिद करता है। जब उसकी यह जिद पूरी हो जाती है तो वह अपने खिलौनों की तुलना दूसरे बच्चे के खिलौनों से करने लगता है। धीरे-धीरे बच्चे एक-दूसरे से तुलना करते हुए ही बड़े होते हैं। दूसरी तरफ माता-पिता भी अपने बच्चों की तुलना दूसरे बच्चों से करने लगते हैं। प्रतिस्पर्धा के इस माहौल में तो माता-पिता परीक्षा में एक-एक नंबर के लिए बच्चों की तुलना करने लगे हैं।

इस वजह से बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ रहा है और वे विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त हो रहे हैं। यह प्रवृत्ति केवल बच्चों के संदर्भ में ही नहीं देखी जा रही है बल्कि बड़ों के संदर्भ में सामाजिक स्तर पर भी देखी जा रही है। दूसरे व्यक्ति ने जो गाड़ी खरीदी है हमें उससे भी महंगी गाड़ी चाहिए। दूसरे व्यक्ति के घर में जो सामान है, हम उससे भी बढ़िया सामान खरीद कर तृप्त होने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या वास्तव में हम तृप्त हो पाते हैं? अगर महंगे सामान और आलीशान मकान से तृप्ति मिल सकती तो सारे धनी व्यक्ति तृप्त और सुखी होते। इसलिए तुलना करने की प्रक्रिया से हम जितना दूर रहेंगे उतना ही सुखी रहेंगे।

पुराने जमाने में लोग इसलिए सुखी थे क्योंकि वे एक-दूसरे से तुलना नहीं करते थे। वे जिस हाल में भी रहते थे, उसी में सुखी रहते थे। तुलना करने का अर्थ यही है कि हम दूसरों की तरफ देख रहे हैं। ऐसा करके हम अनावश्यक रूप से प्रभावित होते हैं। हमें सिर्फ दूसरों का आभामंडल और वैभव दिखाई देने लगता है। जरूरी नहीं कि यह सब वास्तविक हो। इस तरह कभी-कभी हम भ्रम के शिकार हो जाते हैं।

हम अंतत: अपनी ही जिंदगी तबाह करते हैं। इन सभी बातों का अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरों की तरफ न देखें। दूसरों की तरफ जरूर देखें लेकिन उससे पहले अपनी तरफ देखकर स्वयं के आभामंडल को भी पहचानने की कोशिश करें। जब हम स्वयं को अच्छी तरह पहचान लेंगे तो दूसरों की तरफ देखकर हमारे अंदर तुलना करने का भाव पैदा नहीं होगा। स्वयं को पहचानने का अर्थ यह है कि हम अपनी परिस्थितियों का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करें। अपनी परिस्थितियों को पहचाने बिना तुलना करने का कोई अर्थ नहीं है। हमें यह समझना होगा कि तुलना करने से हमारी समस्याएं खत्म होने वाली नहीं हैं बल्कि कई नई समस्याएं पैदा होने वाली हैं।