बदहाल शिक्षा(सम्पादकीय)

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

बदहाल शिक्षाबदहाल शिक्षा

हालत यह है कि कई राज्यों में दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह स्थिति तब है, जब देश में पिछले साल ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई है और इसके तहत इस दशक के अंत यानी 2030 तक स्कूलों में नामांकन दर शत-प्रतिशत हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि अगर बड़ी संख्या में बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ने तो मजबूर होते रहेंगे तो शिक्षा के क्षेत्र में तय किए जा रहे लक्ष्य कैसे हासिल हो पाएंगे?

गौरतलब है कि केंद्र सरकार के सहयोग से राज्यों में स्कूली शिक्षा का दायरा बढ़ाने और जागरूकता पैदा करने के लिए समग्र शिक्षा कार्यक्रम चल रहा है। इसका मकसद ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूली शिक्षा मुहैया करवाना है। पर शिक्षा मंत्रालय के परियोजना मंजूरी बोर्ड की रिपोर्ट बता रही है कि इस अभियान में वैसी कामयाबी मिल नहीं रही, जैसी मिलनी चाहिए। अगर बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ रहे हैं तो निश्चित ही इसके पीछे उनकी अपनी मजबूरियां होंगी। लेकिन इसे लेकर सरकारें भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं। बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर शिक्षा के इस महाभियान को आगे बढ़ा पाने में सरकारें कामयाब क्यों नहीं पा रहीं?


शिक्षा मंत्रालय के परियोजना मंजूरी बोर्ड की रिपोर्ट बता रही है कि बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य उन राज्यों में शामिल हैं जहां से स्कूली शिक्षा की यह बदतर तस्वीर सामने आई है। हालांकि ओड़ीशा, त्रिपुरा, असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड और कर्नाटक भी इस सूची में शामिल हैं। पर बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी अगर दसवीं कक्षा में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वालों की दर सबसे ज्यादा हो तो यह चिंताजनक है। इससे यह भी पता चलता है कि इन राज्यों में स्कूली शिक्षा व्यवस्था किस हाल में चल रही है।

मध्य प्रदेश और गुजरात तो संपन्न राज्य होने का दावा करते रहे हैं। हर मामले में गुजरात माडल की दुहाई दी जाती रही है। मध्य प्रदेश भी कोई विपन्न राज्य नहीं है। बिहार की स्थिति भी अब इतनी खराब नहीं है कि स्कूली शिक्षा को लेकर राज्य सरकार कुछ कर पाने में असमर्थ हो। आंकड़े बता रहे हैं कि 2020-21 में बिहार में दसवीं की पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की दर 21.4 फीसद रही थी। गुजरात में यह 23.3 और मध्य प्रदेश में 23.8 फीसद रही। त्रिपुरा में यह छब्बीस फीसद रही। ओड़ीशा, झारखंड और कर्नाटक में यह दर सोलह फीसद से ऊपर रही।

इसमें संदेह नहीं कि शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में शिक्षा व्यवस्था आज भी संतोषजनक नहीं है। बड़ी संख्या में स्कूलों के पास अपनी इमारतें नहीं हैं। अगर हैं भी तो जर्जर हालत में। फिर वहां पीने के पानी से लेकर शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव कोई नई समस्या नहीं है। इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में लड़कियां सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ देती हैं कि वहां उनके लिए शौचालय तक नहीं होते।

स्कूलों में शिक्षकों की कमी की समस्या बनी हुई है ही। फिर स्कूली शिक्षा बीच में छोड़ देने का बड़ा कारण गरीबी भी है। ऐसे बच्चों की संख्या कम नहीं है जो अपने परिवार की मदद के लिए जल्द ही रोजगार तलाशने के लिए शहरों की ओर आ रहे हैं। पर बड़ा सवाल यह है कि जिन सरकारों को शिक्षा की मद में केंद्र से पर्याप्त मदद मिल रही है, जो साधन संपन्न हैं, वे भी इस मामले में पिछड़ते क्यों जा रहे हैं?