शिक्षा की सुध(सम्पादकीय)

  क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

शिक्षा की सुध

शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री ने ट्वीट करके घोषणा की कि प्रधानमंत्री स्कूल्स फार राइजिंग इंडिया यानी पीएम-श्री योजना के तहत देश के साढ़े चौदह हजार स्कूलों को विकसित और उन्नत किया जाएगा। यानी उम्मीद जगी है कि सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरी लाने के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। शिक्षा क्षेत्र की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। शिक्षा संबंधी तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में बरसों से सरकारी स्कूलों में भवन, पीने के पानी, पाठ्य सामग्री, टाट-पट्टी आदि के अभाव के साथ-साथ अध्यापकों की बेहद कमी के तथ्य उजागर होते रहे हैं।


फिर यह भी हकीकत किसी से छिपी नहीं है कि बजट में शिक्षा पर खर्च का प्रावधान आवश्यकता से काफी कम होने की वजह से स्कूलों की दशा में सुधार नहीं आ पा रहा। इसकी वजह से जो थोड़े सक्षम हैं वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना बेहतर समझते हैं। इससे प्रोत्साहित होकर निजी स्कूलों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। मगर इसका नकारात्मक प्रभाव यह पड़ रहा है कि शिक्षा का अधिकार सांविधानिक संकल्प होने के बावजूद सभी बच्चों तक मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित नहीं हो पा रही। इसके चलते साक्षरता की दर अपेक्षित गति से नहीं बढ़ पाई है।

केंद्र सरकार इन तथ्यों से अनजान नहीं मानी जा सकती। हालांकि शिक्षा समवर्ती सूची का मामला है, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों को साथ मिल कर काम करना होता है। जिन राज्यों में केंद्र से भिन्न राजनीतिक दल की सरकारें हैं वहां वे अक्सर स्कूलों की दुर्दशा का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ती नजर आती हैं। मगर जिन राज्यों में केंद्र के सत्ताधारी दल की सरकारें हैं, वहां भी स्थिति बद से बदतर ही हुई है। आज स्थिति यह है कि कोई राज्य सरकार शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरी को अपनी उपलब्धि के तौर पर नहीं गिना सकती।

दिल्ली को अपवाद जरूर मान सकते हैं। दरअसल, सरकारी स्कूलों की दशा चिंताजनक होने के पीछे लंबी परंपरा चली आ रही है, जिसमें सरकारी स्कूलों के बजाय निजी क्षेत्र को स्कूल खोलने को प्रोत्साहन दिया गया। ऐसी इच्छुक कंपनियों, उद्यमों, संगठनों को सस्ती दर पर जमीन उपलब्ध कराई गई। मगर उस नीति ने शिक्षा को कारोबार में बदल दिया। अब धीरे-धीरे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पैसे वाले लोगों की पहुंच की चीज बन कर रह गई है। इस तथ्य से भी केंद्र सरकार अनजान नहीं। अच्छी बात है कि साढ़े चौदह हजार स्कूलों को विकसित और उन्नत करने का संकल्प लिया गया है, मगर इतने से शिक्षा के क्षेत्र में कितनी बेहतरी आएगी, देखने की बात है।

दरअसल, अब शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं सरकारों की प्राथमिक सूची से निकल कर महज चुनावी रणनीति का हिस्सा बन गई हैं। हर विपक्षी दल चुनाव के वक्त शिक्षा की बदहाली रेखांकित करता देखा जाता है और सत्ता पक्ष इसे बेहतर बनाने का भरोसा दिलाता रहता है। अगर सचमुच केंद्र सरकार शिक्षा क्षेत्र में बेहतरी को लेकर संजीदा है, तो उसे पहले उन बुनियादी अवरोधों को हटाने का प्रयास करना चाहिए, जिसके चलते सरकारी स्कूल दुर्दशा के शिकार हैं। नई योजना बना कर महज स्कूलों का रंग-रोगन कर देने या उनमें कुछ बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करा देने भर से वहां पढ़ाई-लिखाई का माहौल बेहतर हो जाने का भरोसा नहीं दिलाया जा सकता। साढ़े चौदह हजार स्कूल ही सही, अगर उनमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का माहौल बनता है, तो आगे का रास्ता आसान हो सकता है।