क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141

कुछ स्थानों पर यह भी मान्यता है कि कुंवारी कन्याओं द्वारा सुयोग्य वर की प्राप्ति और सुखद वैवाहिक जीवन की मंगलकामना से सांगानेर की आदर्श कन्या मानी जाने वाली ‘संजा’ की स्मृति में सांझी व्रत किया जाता है। कुंवारी कन्याओं द्वारा यह पर्व मनाए जाने के संबंध में भगवान शिव और पार्वती से जुड़ा एक प्रसंग भी बहुत प्रचलित है। कहते हैं कि भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए पार्वती ने नौ दिनों तक व्रत रखे थे और इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दुर्गा स्वरूपा पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। यही वजह है कि विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं इस त्योहार को मनाती हैं।
शाम के समय को उत्तर भारत में कई स्थानों पर ‘सांझ’ भी कहा जाता है और सांझी का त्योहार शाम के समय ही प्रारंभ होता है, इसलिए भी इस पर्व को ‘सांझी’ नाम से जाना जाने लगा। वास्तव में यह पर्व उत्तर भारतीयों की सांझी विरासत, धर्म और लोक कला का अनुपम उदाहरण है। सौभाग्य एवं धन-सम्पत्ति की कामना और अपने परिवार को किसी अनिष्ट से बचाने के लिए महिलाएं गाय के गोबर, तालाब की मिट्टी, खड़िया, चूड़ियां, कोड़ी, सरकंडे, सितारे, माचिस की तीलियां, बटन, तरह-तरह के रंग, मोर पंख इत्यादि का इस्तेमाल कर घर की दीवार पर सांझी की पारम्परिक भित्ति रचना करती हैं और वहां की प्रचलित वेशभूषा और आभूषणों से सांझी का श्रृंगार करती हैं।
विशेषकर ग्रामीण अंचलों की महिलाएं सांझी की रचना करने में अपने-अपने हुनर का प्रदर्शन करती हैं और सबसे अच्छी सांझी बनाने वाली महिला की दूर-दूर तक चर्चा होती है। अपने-अपने घरों में दीवारों पर सांझी की रचना करने के बाद महिलाएं एक-दूसरे के घर सांझी की साज-सज्जा देखने भी जाती हैं। नवरात्रों के समापन के साथ ही सांझी पर्व का भी समापन हो जाता है। दशहरे के दिन पहले घर में कढ़ाई की जाती है और सांझी को भोग लगाया जाता है, उसके बाद सांझी को दीवार से उतारकर आस-पड़ोस की महिलाएं इकट्ठी होकर गीत गाते हुए उसे गांव के तालाब अथवा जोहड़ में विसर्जित कर आती हैं।