हादसे की कड़ियां(सम्पादकीय)

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

हादसे की कड़ियां

हादसे की कड़ियांहादसों को लेकर सरकार और समाज जिस तरह सोचने लगा है, उसमें इस घटना को भी एक आम दुर्घटना के तौर पर दर्ज किया जाएगा और बात आई-गई हो जाएगी। मगर क्या कभी यह सोचने की जरूरत समझी जाती है कि ऐसे हादसों की वजहें क्या होती हैं और खासतौर पर किन कारणों से कुछ लोग सड़कों के फुटपाथ या डिवाइडर जैसी जगहों पर सोते हैं, जो कई बार उनके लिए जानलेवा साबित होता है!

निश्चित तौर पर रात के दो बजे लालबत्ती की जगह पर भी बेलगाम तरीके से ट्रक चला रहे चालक ने संतुलन खो दिया और आखिरकार इस हादसे को अंजाम दिया। सवाल है कि हमेशा ही सड़कों से गुजरने वाले वाहनों पर नजर रखने और चौकसी बरतने का दावा करने वाले यातायात महकमे या फिर पुलिस की नजर उस पर समय रहते क्यों नहीं पड़ी? क्या सड़कों पर रात में अराजक तरीके से वाहन चलाने वालों पर लगाम लगाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है?


संभव है कि इस घटना में चार लोगों की मौत को चालक की लापरवाही का नतीजा मान लिया जाए और यह भी रोजमर्रा के हादसे के आंकड़ों में शुमार हो जाए। मगर क्या सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह उन कारकों पर भी गौर करे और उसका हल सुनिश्चित करे, जो ऐसी घटनाओं में एक अहम पहलू है? दिल्ली जैसे तमाम शहरों में आधी रात को सड़क पर निकलने पर कहीं भी सड़क किनारे फुटपाथ या अन्य जगहों पर सोए लोग दिख जाते हैं। जानलेवा हादसों के जोखिम के बावजूद इस तरह रात का वक्त काटने वाले लोग क्या सोने के लिए शौक से ऐसी जगहों का चुनाव करते हैं?

जाहिर है, इनमें से लगभग सभी वैसे लोग होते हैं, जिनके पास रहने के लिए कोई कोना नहीं होता। इसलिए कई तरह के अभाव से जूझते हुए वे लोग फुटपाथ या फिर किसी अन्य जगह पर रात में सो जाते हैं। इसी में कई बार वे बेलगाम वाहनों से कुचल कर मारे भी जाते हैं। किसी महानगर में शहरी नियोजन की ऐसी हालत को किसी भी सरकार के लिए एक शर्म की तरह देखा जाना चाहिए।

विडंबना यह है कि अर्थव्यवस्था और विकास के दावों के बीच सरकारों को यह सोचने की जरूरत भी शायद महसूस नहीं होती है कि इस समस्या के कारणों की पहचान की जाए और उसी मुताबिक हल निकाले जाएं। दिल्ली सरकार अक्सर आम आदमी के प्रति अपने सरोकारों का प्रचार करती रहती है। लेकिन सड़क यातायात से लेकर फुटपाथों पर रहने वालों के लिए न्यूनतम व्यवस्था करने को लेकर वह कितनी गंभीर है, यह आए दिन सामने आता रहता है।

दिल्ली में बेघर लोगों के साथ ऐसे हादसे होते रहने के बावजूद सरकार इस पहलू पर गौर नहीं करती कि इनके लिए कोई सुरक्षित ठिकाना बनाया जाए या इससे संबंधित किसी व्यावहारिक योजना को कार्यरूप दिया जाए। जो रैन बसेरे बने भी हुए हैं, उन तक सीमित लोगों की पहुंच है। फिर वहां की व्यवस्था की वजह से कितने लोगों को इसकी सुविधा मिल पाती है, यह छिपा नहीं है। जरूरत है कि सिर्फ कोई ठौर नहीं होने की वजह से हादसों का शिकार होने वाले लोगों को लेकर सरकार कोई ठोस और सुचिंतित योजना पर काम करे, अन्यथा महानगरों की चकाचौंध के बीच त्रासदी की जिम्मेदारी भी उसी है।