गणपति जन्मस्थली डोडीताल उत्तरकाशी: अरविन्द भाई ओझा

 क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141



गणपति जन्मस्थली डोडीताल उत्तरकाशी
पहले गणपति विसर्जन पर पर्यावरण प्रदूषण के नाम पर विवाद पैदा किया गया, संतों पर खूब लाठियां चलीं,, अब एक नया टूलकिट चल रहा है , अभी एक ह्वाट्सएप मैसेज में देखा कि गणपति जी का विसर्जन नहीं करना चाहिए..!!!
अब ये मैसेज कहां से चलते हैं, कभी हनुमान जयंती पर] कभी दही हांडी की ऊंचाई पर] तो कभी श्रावण मास के दुग्धाभिषेक पर, यह तो वही जानें किंतु भाव प्रतिष्ठा , प्राण प्रतिष्ठा के, चल , अचल , कालातीत और पूजन की समय सीमा के अनुसार अलग अलग विधान हैं ,,
जो विधि विधान पहले से पुराणों में वर्णित है , उसमें प्राकृतिक सामग्री से गणपति बप्पा की प्रतिमा निर्माण का निर्देश दिया गया है, घरों में गोमय से गणपति बनाए जाते थे , इनका विसर्जन पूर्णतः पर्यावरण की रक्षा करने वाला होता है, अत: रासायनिक घटकों से मुक्त शुद्ध प्राकृतिक वस्तुओं से गणपति बप्पा की प्रतिमा बनाएं ,,
एक नया ही मैसेज चल रहा है कि गणपति जी महाराष्ट्र में मेहमान बन कर गए थे बाकी जगह विसर्जन न करें. किस आधार पर ये टूलकिट रचना हुई यह तो इसको प्रचारित करने वाले ही जानें. मध्य काल की बर्बरता में ये उत्सव सार्वजनिक रूप से नहीं मना पाते थे, जिस परंपरा का पुनरुत्थान लोकमान्य तिलक जी ने किया था।
श्री गणेश पुराण उपासना खण्ड में भाद्रपद मास की श्री गणेश चतुर्थी से पूजन का विधान और अंत में विसर्जन का स्पष्ट उल्लेख है ।
मृत्तिकां सुन्दरां स्निग्धां क्षुद्रपाषाणवर्जिताम् ।
सुविशुद्धामवल्मीकां जलसिक्तां विमर्दयेत् ॥९॥
कृत्वा चारुतरां मूर्तिं गणेशस्य शुभां स्वयम् ।
सर्वावयवसंपूर्णां चतुर्भुजविराजिताम् ॥१.४९.१०॥
परश्वादि स्वायुधानि दधतीं सुन्दरां घनाम् ।
स्थाप्य पीठे ततः पाणी प्रक्षाल्य मेलयेत्सुधीः ॥११॥
पूजाद्रव्याणि सर्वाणी जलादीनि प्रयत्नतः ।
अष्टगंधानक्षतांश्च रक्तपुष्पाणि गुग्गुलुम् ॥१२॥
त्रिपंचसप्तभिः पत्रैर्युतान् दूर्वांकुरान् शुभान् ।
अष्टोत्तरशतं नीलाऽन् श्वेतानानीय सुन्दरान ॥१३॥
घृतदीपं तैलदीपं नैवेद्यं विविधं शुभम् ।
मोदकापूप लड्डूकान् पायसं शर्करायुतम् ॥१४॥
सूक्ष्मं च तंदुलान्न च व्यंजनानि बहूनि च ।
सचन्द्रपूगचूर्णाढ्यं खाद्यखादिरसंयुतम् ॥१५॥
एलालवंगसंमिश्रं ताम्बूलं केसरान्वितम् ।
जम्ब्वाम्रपनसादीनि द्राक्षारम्भा बलानि च ॥१६॥
तत्तदृतुभव नीशे नारिकेलानि चानयेत् ।
बहुप्रकारमार्तिक्यं कांचनीं दक्षिणां तथा ॥१७॥
एवं संभृतसंभार एकान्तस्थलमास्थितः ।
चैलाजिने कुशमये आसने च कृतासनः ॥१८॥
भूतशुद्धिं प्रकुर्वीत प्राणानां स्थापनं तथा ।
दिग्बंध पूर्वं देवांश्च गणेशादीन्नमेत्पुरा ॥१९॥
अन्तर्बहिर्मातृकाश्च न्यसेदागम मार्गतः ।
सन्निधामादिका मुद्रा दर्शयेद्गुरु मार्गतः ।
मन्त्रन्यासं ततः कृत्वा षडंगन्यासमेव च ॥१.४९.२०॥
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सर्वरोगप्रपीडासु मूर्तीनां त्रयमुत्तमम् ।
नवाहं पूजयेद्यस्तु सर्वपीडां व्यपोहति ॥२१॥
सौवर्णी राजती ताम्री रीतिकांस्यसमुद्भवा ।
मौक्तिकी च प्रवाली च सर्वमेतत्प्रयच्छति ॥२२॥
एवं कृते व्रते देवि सर्वान्कामानवाप्स्यसि ।
यावद्भाद्रपदे मासि चतुर्थी परिलभ्यते ॥२३॥
तस्यां महोत्सवः कार्यो यथाविभवमादरात् ।
रात्रौ जागरणं कार्यं तत्कथावाद्यगायनैः ॥२४॥
प्रभाते विमले स्नात्वा पूर्ववत्पूजयेद्विभुम् ।
गणेशं वरदं देवं ततो होमं समारभेत् ॥२५॥
कुंडे सांगं स्थंडिले वा हूयाज्जप दशांशतः ।
पूर्णाहुतिं ततः कुर्याद् बलिदानपुरःसरम् ॥२६॥
आचार्यं पूजयेत् पश्चाद् गोभ्वासोधनादिभिः ।
ब्राह्मणां स्तोषयेत् पश्चाद्धोमशेषं समापयेत् ॥२७॥
तर्पयेत्तद्दशांशेन तद्दशांशेन भोजयेत् ।
ब्राह्मणान्वेदविदुषः सपत्नीकांश्च कांश्चन ॥२८॥
तेभ्यो भूषणवासांसि दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् ।
दद्यात् स्त्रीणामलंकारान् योषिद्भ्यश्च सकुंचुकान् ॥२९॥
तुष्टये गणनाथस्य सिद्धिबुद्धियुतस्य ह ।
वित्तशाठ्यं न कुर्वीत यथाविभवमाचरेत् ॥१.५०.३०॥
ततः सुहृज्जनयुतः स्वयं भुंजीत सादरम् ।
अपरस्मिन्दिने मूर्तिं नृयाने स्थापयेन्मुदा ॥३१॥
छत्रध्वजपताकाभिश्चामरैरुपशोभिताम् ।
किशोरैर्दण्डयुद्धेन युध्यद्भिश्च पुरःसरम् ॥३२॥
"""महाजलाशयं गत्वा विसृज्य निनयेज्जले। ""
वाद्यगीतध्वनियुतो निजमन्दिरमाव्रजेत् ॥३३॥ ( २१६२)
इति श्री गणेशपुराण उपासनाखंडे हिमवद्गिरिजा संवादे चतुर्थीव्रतकथनं नाम पंचाशत्तमोऽध्यायः ॥५०॥