ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से, जिसमें सत्य है धर्म है और जो पवित्र है वही ब्राह्मण है?: बीके शर्मा हनुमान

 क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

गाजियाबाद, आशीष वाल्डन. विश्व ब्राह्मण संघ के प्रवक्ता ब्रह्मऋषि विभूति बीके शर्मा हनुमान ने बताया कि *ब्राह्मण है रिश्तो की तिजारत नहीं करते, हम लोग दिखावे की मोहब्बत नहीं करते, मिलना है तो आ जीत ले मैदान(संस्कार)में हमको, हम अपने कबीले (ब्राह्मण समाज) से बगावत नहीं करते*? ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है। 'मनुस्मृति' के अनुसार आर्यावर्त वैदिक लोगों की भूमि है। ब्राह्मण व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं। ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं। पारंपरिक तौर पर यह विश्वास है कि वेद 'अपौरुषेय'तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है, जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है धार्मिक व सांस्कॄतिक रीतियों एवं व्यवहार में विविधताओं के कारण और विभिन्न वैदिक विद्यालयों के उनके संबन्ध के चलते, ब्राह्मण समाज विभिन्न उपजातियों में विभाजित है। सूत्र काल में, लगभग 1000 ई. पू. से 200 ई. पू. वैदिक अंगीकरण के आधार पर, ब्राह्मण विभिन्न शाखाओं में बटने लगे। प्रतिष्ठित विद्वानों के नेतॄत्व में, एक ही वेद की विभिन्न नामों की पृथक-पृथक् शाखाएं बनने लगीं। इन प्रतिष्ठित ऋषियों की शिक्षाओं को 'सूत्र' कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को 'धर्मसूत्र' कहते हैं , आनुष्ठानिक वालों को 'श्रौतसूत्र' तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को 'गृहसूत्र' कहा जाता है। सूत्र सामान्यतया पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

ब्रह्म = वेद का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता। ऋग्वेद की अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया था, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त' (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण क्षत्रियों से ऊँचा माना गया है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ ब्राह्मण में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वागींण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ('भूसुर') कहे गये है, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा सोम पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरूद 'आवसायी' तथा 'यथाकाम-प्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है। भिन्न-भिन्न देशों में बस जाने के कारण ब्राह्मणों के अलग-अलग नामों की प्रथा चल पड़ी थी। ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं। इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं। "सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। 'ओंकार' का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।"

ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृहृयज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था, उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था।

1 व्यक्ति, बैठे हैं और खड़े रहना की फ़ोटो हो सकती है