ईडी को ‘सुप्रीम’ अधिकार(सम्पादकीय)

  क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

ईडी को ‘सुप्रीम’ अधिकार

सर्वोच्च अदालत के फैसले से स्पष्ट है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक केंद्रीय जांच एजेंसी है, कोई आतंक नहीं है, अलबत्ता आतंकवाद से ज्यादा जघन्य अपराध ‘धनशोधन’ की जांच को पूरी तरह अधिकृत और वैध है। आजकल देश में ईडी का हव्वा छाया है, क्योंकि बड़े राजनेता और उद्योगपति आदि इसकी गिरफ्त में हैं। उनके खिलाफ जांच की गति फिर बढ़ेगी, क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने सम्यक रूप से ईडी और उसके अधिकार-क्षेत्र को परिभाषित कर दिया है। धनशोधन रोकथाम कानून (पीएमएलए) में वित्त विधेयक के जरिए बदलाव करने के मुद्दे पर 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ विचार करेगी। यह मुद्दा उसे सौंपने का निर्णय भी सुप्रीम अदालत की न्यायिक पीठ ने ही किया है। संविधान पीठ के गठन और विमर्श से पहले शीर्ष अदालत ने अपना फैसला सुनाया है कि ईडी को केस दर्ज करने, छापेमारी, समन भेजने, तलाशी, गिरफ्तारी, बयान दर्ज करने और संपत्ति जब्त करने का कानूनन अधिकार है। जमानत देने की उसकी अपनी प्रक्रिया है, जो काफी सख्त और पेचीदा है। सर्वोच्च अदालत के 545 पन्नों के फैसले के साथ ही 242 याचिकाएं खारिज कर दी गई हैं, जिनमें ईडी को ‘राष्ट्रीय आतंक’ करार दिया गया था। उस पर राजनीतिक दुरुपयोग के ही ज्यादातर आरोप चस्पा किए गए थे। कांग्रेसी प्रवक्ता तो उसे ‘नकारा’ करार देने में जुटे थे। दरअसल हमारी व्यवस्था में यह स्वाभाविक भी है। ईडी, सीबीआई, आयकर सरीखी प्रमुख जांच एजेंसियां भारत सरकार के अधीन ही काम करती हैं, लेकिन जांच के स्तर पर स्वायत्त मानी जाती हैं। यदि इन एजेंसियों का दुरुपयोग अब किया जा रहा है, तो 2014 से पहले कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार लगातार 10 सालों तक सत्ता में थी। केंद्र में गैर-भाजपा सरकारें ज्यादातर रही हैं। उन सरकारों ने भी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया होगा! ईडी धनशोधन के मामलों की जांच 1956 से कर रहा है। यूपीए सरकार के दौरान 2005 में पीएमएलए संशोधित किया गया था। तब चिदंबरम भारत सरकार में वित्त मंत्री थे। यदि इस कानून का दुरुपयोग ही किया जाता रहा है, तो चिदंबरम ऐसे प्रावधान कर सकते थे कि उन्हें और उनके सांसद-पुत्र को जेल न जाना पड़े। उनके खिलाफ ईडी की जांच आज भी जारी है। बहरहाल मोदी सरकार के दौरान भी इस कानून में संशोधन किए गए। यदि कानून के तहत औसतन सजा-दर 0.5 फीसदी है, तो उसके लिए कानून की प्रक्रिया जिम्मेदार है, न कि मोदी सरकार ही। कानून का औसत मामला भी 10-12 साल में निष्कर्ष तक पहुंच पाता है, जबकि ईडी आर्थिक अपराधों की जांच करता है। धनशोधन मामलों में कई परतें, कई व्यक्ति, कई स्रोत और संगठन संलिप्त होते हैं। यदि ईडी ने पाकिस्तान में बसे आतंकी सरगना हाफिज सईद, हिजबुल मुजाहिदीन के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन, ड्रग्स तस्कर इकबाल मिर्ची सरीखों की अवैध संपत्तियां जब्त की हैं और टेरर फंडिंग के 57 मामलों में 1249 करोड़ रुपए की संपत्तियां जब्त की हैं, तो ये ईडी के हिस्से की बड़ी सफलताएं हैं। दरअसल एक चोर यह दलील नहीं दे सकता कि अमुक भी चोर है।


पहले उसकी जांच की जाए। जो केस ईडी के विचाराधीन हैं, उनकी तो जांच तय है, लेकिन दूसरे चोरों का नंबर भी आएगा। ताज़ातरीन मामला बंगाल सरकार के मंत्री पार्थ चटर्जी का है। ईडी ने ‘नकदी के पहाड़’, काली डायरियां और अवैध संपत्तियों के दस्तावेज बरामद किए हैं। क्या मंत्री को इसलिए छोड़ दिया जाए, क्योंकि वह विपक्षी खेमे के हैं? क्या इसी आधार पर कानून के दुरुपयोग के आरोप लगाए जाते रहेंगे? ये दलीलें बकवास हैं। बहरहाल सर्वोच्च अदालत ने ईडी के अधिकारों की वैधता की व्याख्या कर दी है। अब ईडी को लेकर जो भी दुष्प्रचार किए जाएंगे, वे बेमानी होंगे। यदि विपक्ष के पास तर्कसंगत मामले हैं, तो वह शीर्ष अदालत की चौखट खटखटा सकता है। सवाल कर सकता है कि भाजपा नेताओं के खिलाफ ईडी जांच शुरू हुई थी, लेकिन अब उन्हें छोड़ दिया गया है, वे दोषमुक्त कैसे हो सकते हैं? ईडी के विचाराधीन आज भी 992 प्रमुख मामले हैं। उन्हें जांच के बिना कैसे मुक्त किया जा सकता है? सोनिया गांधी और उनके परिवार के खिलाफ गंभीर मामला 2012 से चल रहा है, लेकिन अब भी जांच जारी है, क्या इसे ईडी की नाकामी माना जाए? ईडी पर नई सोच के साथ कुछ कहना ही सार्थक होगा। सवाल यह है कि अगर ईडी को सौंपी गई शक्तियां उससे वापस ले ली जाएं, तो आतंकवादियों और देशद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा। वास्तव में ईडी ने आतंकवादियों के मददगारों और अति भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई करके कुछ उपलब्धियां भी हासिल की हैं। अत: उसे आर्थिक अपराधों की जांच करनी ही चाहिए।