श्रृंगार पर प्रहार

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141



अनिला सिंह आर्य
श्रृंगार पर प्रहार
थोडा़ कदम आगे बढाईए बरसों से चली आ रही रीतियों और रस्मों से । हो सकता कुछ अटपटा से लगे आपको लेकिन जब आप सोचेंगे अकेले में तब शायद आपको भी महसूस होगा कि हाँ हमें बाहर आना है ।
काफी समय हो गया जब हमारे बीमारी के कारण एक कार्यकर्ता बंधु की मृत्यु हुई । परिजन अर्थी ले जा चुके थे ।अचानक किसी की नजर रोती और व्याकुल पत्नी के हाथों पर गयी तब उन्होंने सबका ध्यानाकर्षित करते हुए कहा कि अरे हाथों के कड़े तो रह ही गये ।फिर एक आवाज आई कि अभी तो पास ही हैं जल्दी निकालो। निकालने पर कड़े बड़े हठी हो गये थे तो किसी ने समाधान बताया कि तोड़ कर निकाल दो । निकलने तो थे ही इसलिए उनको तोड़ा गया और शमशान तक भेजे क्योंकि अर्थी इंतजार नहीं कर सकती थी ।
ऐसे हमें अच्छा नहीं लगा और कुछ इधर उधर की घटना के शब्द याद आ गये ।तुरंत महिला की बेरहमी से बिंदी मिटाना या उतारना, सुंदरसी मनपसंदीदा चूड़ियाँ को चूर चूर कर देना ,पाँव की उंगलियों के बिछुए उतारना और इन सबको मृत पति के चरणों में रख देना ।सोने या चाँदी का आभूषण है तो उसे भी उतार कर अपने पास रखना क्योंकि उन्हें अर्थी के साथ चिता को समर्पित नहीं कर सकते ।
उस दुखी महिला का मन और मन में उठते शौक तो वैसे ही मर जाते हैं ।अभी तो वह कुछ सोच भी नहीं पाती सिर्फ विलाप करती है और हम उसके श्रृंगार पर प्रहार करने में लग जाते हैं ।हमारा विचार है कि समय ने पति बिछोह का  दुख दिया है उसे उससे उबरने में मदद कीजिए ना कि उसके आभूषण उतारने और बिंदी मिटाने में लग जाएं।वह तो स्वयं ही दुख की मारी इनकी ओर झांकेगी भी नहीं ।
जहाँ तक हम सोचते हैं कि इसमें बहनों को बदलनी होगी अपनी सोच ।भाईयों की शायद इसमें कोई दखलंदाजी नहीं होगी ।
अंत में हम कहते हैं वही जो अक्सर कहते हैं कि जरूरी नहीं जो बात हमने कही आप उससे इत्तेफाक रखें ।