डामटा के पास हुए बस हादसे ने एक बार फिर वही सवाल खड़े किए हैं। आखिर कुछ तो ऐसा हुआ जो हादसे का कारण बना। ऐसा भी नहीं कि बस उत्तराखंड से बाहर की थी और इसे चलाने वाले रास्तों से अनजान थे। जैसा कि खबरों में बताया गया है कि यह बस यातायात पर्यटन एवं विकास सहकारी संघ लिमिटेड कंपनी की थी। बस के कागजात भी दुरुस्त होने की बात कही जा रही है। ऐसा भी नहीं कि बस बहुत पुरानी थी। साल 2018 का पंजीकरण था। लेकिन एक जो सबसे बड़ी बात सामने आई, वह यह कि हरिद्वार से यमुनोत्री के बीच यह बस का लगातार तीसरा फेरा था, जो बिना रुके चल रही था। जबकि नियम के अनुसार एक फेरा पूरा करने के बाद बस के चालक और परिचालक को विश्राम दिया जाता है।
लेकिन इस बस के चालक से एक नहीं दो नहीं, बल्कि तीसरा फेरा भी करवाया जा रहा था। ऐसे में इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ड्राइवर को झपकी लग गई होगी और बस बेकाबू होकर खाई में जा गिरी। अगर ऐसी बात है तो चालक से ज्यादा वह कंपनी जिम्मेदार है जो नियमों का उल्लंघन कर इस तरह बसों का संचालन कर रही है। कहा यह भी जा रहा है कि चालक ने किसी वाहन से आगे निकलने की कोशिश की और इसी दौरान बस बेकाबू हो गई। हालांकि ये सब जांच के विषय हैं।
विडंबना यह है कि हम पिछली किसी भी घटना से सबक नहीं लेते। इसलिए अगला हादसा इंतजार करता है। अब तो पहाड़ी राज्यों में सड़कें भी पहले के मुकाबले आधुनिक तकनीक वाली बन रही हैं। जगह-जगह आधुनिक संकेतक लगे हैं। बसें भी खटारा नहीं हैं। ऐसे में भी अगर हादसे होते रहें तो यह गंभीर बात है। उत्तराखंड में वैसे भी सड़क हादसे बढ़ते जा रहे हैं। जबकि इस राज्य में चारधाम यात्रा के लिए लाखों लोग हर साल पहुंचते हैं, जो छोटे-बड़े वाहनों का प्रयोग करते हैं। वैसे भी इन दिनों पर्यटकों और तीर्थयात्रियों का दबाव है और यही कमाई का भी समय होता है। ऐसे में वाहन संचालक नियमों को ताक पर रख बिना रुके फेरे करते हैं। सवाल है कि इन पर लगाम लगे तो कैसे? ऐसे हादसों के लिए उस सरकारी तंत्र को क्यों नहीं जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जिसके पास सड़क और वाहन सुरक्षा का जिम्मा है?