भगवान राम का नाम सांस्कृतिक स्वाभिमान का कालजयी प्रतीक और धर्म से बढ़कर राष्ट्रधर्म बन गया

 क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141

यह वही अयोध्या है जहां की हनुमान गढ़ी ने राम मंदिर की रक्षा में हुए रक्तपात के समय महंतों-पुजारियों को न केवल संरक्षण दिया अपितु लोक आस्था को भी स्थापित किया।

Ram Navami 2022: राम नवमी वह दिन है जब भगवान विष्णु ने अयोध्या में सातवां अवतार लिया।
यह कितना सुखद संयोग है कि जब राम नवमी मनाई जा रही है, श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ न्यास ने हाल ही में एक ऐसी तस्वीर मीडिया को जारी की, जिसने हर सनातनधर्मी का हृदय गर्व और आनंद से भर दिया। तस्वीर दिखा रही थी कि मंदिर का चबूतरा अब पूर्ण होने को है। यह मंदिर भारत की आत्मा माने जाने वाले भगवान राम का है। वही मंदिर, जिसके लिए सैकड़ों वर्ष संघर्ष हुआ। यह वह मंदिर है जिसका शिलान्यास पांच अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था और यह वही अयोध्या है जहां धर्म की दिग्विजय यात्रा करते हुए जब आचार्य शंकर पहुंचे तो उन्हें बौद्ध प्रभाव के कारण वैदिक धर्म मुरझाया दिखा। तब आदिगुरु ने श्रीराम मंदिर में पूजन किया और उसके बाद अयोध्या के मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। तब सनातन धर्म का ध्वज फिर बड़े वेग से लहराने लगा। यह वही अयोध्या है जहां की हनुमान गढ़ी ने राम मंदिर की रक्षा में हुए रक्तपात के समय महंतों-पुजारियों को न केवल संरक्षण दिया अपितु लोक आस्था को भी स्थापित किया।

भारतीय चेतना पर गहरा प्रभाव : राम नवमी वह दिन है जब भगवान विष्णु के सातवें अवतार ने अयोध्या की धरती पर मानव रूप में अवतार लिया। राम का अर्थ है- जो दैवीय रूप से आनंदित है और जो दूसरों को आनंद देता है और जिसमें ऋषि-मुनि आनंदित होते हैं। राम नवमी चैत्र में उज्ज्वल पखवाड़े के नौवें दिन आती है और वसंत नवरात्रि या चैत्र दुर्गा पूजा के साथ अपने उत्कर्ष को प्राप्त होती है। इसलिए कुछ क्षेत्रों में यह त्योहार नौ दिनों में फैला हुआ है। भगवान राम का भारतीय चेतना पर गहरा प्रभाव है। वे मर्यादा, करुणा, सौम्यता, दया और विनम्रता के अवतार थे और शक्ति को लोकहित में प्रयोग करना ही अपना धर्म मानते थे। भगवान राम के नाम में इतनी ऊर्जा, इतनी चेतना है कि लोककवि बिंदु जी बरबस ही कह उठते हैं-

हिंद में प्रति वर्ष आती है नवमी राम की, राम का सुमिरन करा जाती है नवमी राम की,

किस तरह मां-बाप का सत्कार करना चाहिए, किस तरह भाई से अपने प्यार करना चाहिए,

किस तरह दीनों के प्रति उपकार करना चाहिए, किस तरह देश का उद्धार करना चाहिए,

राम के यह गुण बता जाती है नवमी राम की, राम का सुमिरन करा जाती है नवमी राम की।

चक्रवर्ती राज्य पद को त्यागने में तीव्र त्याग, भील गीध निषाद से मिलने का था शुद्धानुराग,

वन में 14 वर्ष बस जाने में था उत्तम विराग, बज रहा था जिस्म की रग-रग में सच्चाई का राग,

प्रेम करने में भरतदृग ‘बिंदु’ का आदर्श लो, शरण जाने में विभीषन भाव का उत्कर्ष लो,

दास बनने में सदा हनुमान का सा हर्ष लो, मंत्र यह प्रतिपक्ष लो प्रतिमास लो प्रतिवर्ष लो,

यह संदेश शुभ सुना जाती है नवमी राम की।।

भाव-विभोर कर देने वाली यह रचना भारत के लोकमानस के अंतर्मन में भगवान राम की व्याप्ति का सार्थक यशोगान है।

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राष्ट्रधर्म ही हमारा धर्म : राम नवमी पर भगवान राम को स्मरण कर रही हूं तो आवश्यक हो जाता है एक ऐसे मठ के बारे में बात करना जिसने श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन में महती योगदान दिया और राष्ट्रधर्म को सबसे बड़ा धर्म माना। वह मठ है श्री गोरक्षनाथ मठ। महंत दिग्विजयनाथ महाराज एवं महंत अवेद्यनाथ महाराज की मान्यता रही कि भारत को यदि भारत बने रहना है तो इसकी कुंजी सनातर्न हिंदू धर्म एवं संस्कृति में है। महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज आनंदमठ की संन्यासी परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का आरोप लगा।

चौरी-चौरा क्रांति में महंत दिग्विजयनाथ को आरोपित किया गया। वह कहा करते थे, ‘फिर जन्में हम इसी भूमि में, यही भाव उर धरे मरें’। यह प्रमाण है कि गोरक्षपीठ ने उस संन्यासी परंपरा का अनुसरण किया जो मानती रही है कि राष्ट्रधर्म ही हमारा धर्म है और राष्ट्र की रक्षा हर संन्यासी का प्रथम कर्तव्य है। यह दैवीय संयोग है कि महंत दिग्विजयनाथ ने स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक वर्ष के भीतर अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर हिंदुओं के अधिकार की मांग रखी। तदनंतर महंत अवेद्यनाथ ने आजीवन श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। सुप्रीम कोर्ट ने जब श्रीरामजन्मभूमि का निर्णय हिंदुओं के पक्ष में दिया तो गोरक्षनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे।

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धर्म रक्षा को आरंभ हुई मठ परंपरा : भारत में मठों की प्राचीन परंपरा रही है। मठ का अर्थ होता है संन्यासियों के लिए बनाया गया आश्रम। मठ परंपरा की शुरुआत हि‍ंदू धर्म में शिक्षा और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हुई। आचार्य शंकर ने भारत के चार क्षेत्रों में अलग-अलग महत्वपूर्ण मठ बनाए। स्वतंत्रता के इस अमृत वर्ष में पाठकों को यह जानना चाहिए कि धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने संन्यासी संघ की भी स्थापना की। आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता व धर्म सुधारक थे। उनके चार प्रधान शिष्य थे- पद्यपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और वोटक। इनमें से पद्यपाद के शिष्य थे- तीर्थ और आश्रम। हस्तामलक के शिष्य- वन और अरण्य थे। सुरेश्वर के शिष्य हुए- गिरी, पर्वत और सागर। वोटक के तीन शिष्य हुए- पुरी, भारती और सरस्वती। इन्हीं 10 शिष्यों के नाम से संन्यासियों के दस भेद चले और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों मठों में इन शिष्यों की परंपरा चली आती है। संपूर्ण विश्व में अनूठी इस परंपरा ने भगवान राम का वह अद्भुत गायन किया कि मानवता हर्षित पुलकित हो उठी।

लगन लगी प्रभु राम की : रामभक्त कवियों की आकाशगंगा के सबसे उजले नक्षत्र गोस्वामी तुलसीदास के बारे में तो क्या ही कहा जाए। रामकथा की भांति उनका यह गायक भी अमर हो गया। लगभग उसी काल में कवि रैदास भी देह की निरर्थकता का बखान करते हुए कह गए-‘कहि रविदासु सबै जग लूटिया, हम तउ एक राम कहि छुटिआ।’ यह है राम की महिमा कि कवि को लगने लगता है कि ‘जब सब कुछ छूट गया तो राम का नाम लेकर मैं बच गया।’ यह वह कालखंड था जब सनातन धर्म आक्रांताओं के भीषण अत्याचारों को झेल रहा था। चारों ओर दमन और शोषण का बोलबाला था और तब ऐसे कठिन समय में संन्यासी ही आगे आए।

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मठों में अखाड़ों का प्रादुर्भाव धर्मरक्षा के निमित्त ही हुआ और कवियों ने अपनी रचनाओं से जन-मन को चेतन कर दिया। स्वामी रामानंद ने भगवान राम की भक्ति को आधार बनाकर छुआछूत को समाप्त करने का आह्वान किया और हिंदुओं को एक करने का मार्ग निकाला-‘हरि को भजै, सो हरि का होई।’ राम नाम की महिमा इतनी अपरंपार कि उनसे पहले खुसरो भी कह गए, ‘राम इमन हर गिज न शुद, हर चंद गुफ्तन राम-राम।’ रहीम एक कदम और बढ़े ओर बोल उठे, ‘चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस, जापर विपदा परति है सो आवत यहि देस, गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव, रहिमन जगत अधार का, और न कछु उपावं।’

नई पीढ़ी को जानना-समझना चाहिए कि वह समय ऐसा था कि भगवान राम के नाम में ही मुक्ति, मोक्ष और कल्याण था। ऐसा न होता तो तानसेन भला क्यों गाते, ‘अब मैं राम-राम कहि टेरौं, मेरो मन लागो, उनहीं से सीतापति पद हेरों।’ कैसा भावुक समर्पण है। भगवान राम में स्वयं को रमा देने का कितना मार्मिक भाव है!

जापर कृपा राम की होई

शासकों द्वारा उत्पीड़न की लोमहर्षक कहानियां आगे भी जारी रहीं और तब भी समाज को भगवान राम के नाम में ही अपनी गति मिली। औरंगजेब के अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उसने एक तरफ तो दक्षिण पर ध्यान लगाया और दूसरी ओर बुंदेलों पर। तब राजा छत्रसाल ने भगवान राम में ही शरण पाई और वहां से मिली शक्ति के बल पर उन्होंने बादशाह को दिन में तारे दिखा दिए-

‘महापारावार परी अलख अभार मांझ, कीजिए सम्हार आय आसु यहि नैया को, बहन न पैहें, फेरि फाटहि लगै है फेरि, अमित भरोसो मोहि राम रघुरैया को।’

राम नाम से ही उद्धार : एक ओर भारतेंदु हरिश्चंद खुसरो की शैली में अंग्रेजों का असली चेहरा सामने ला रहे थे-‘भीतर भीतर सब रस चूस, हंसि हंसि के तन मन मूसै, बाहिर बातिन में अति तेज, क्यों सखि सज्जन नहिं अंग्रेज’। तो दूसरी ओर बालमुकुंद गुप्त की प्रसिद्ध पंक्तियां समाज का उत्साह अलग ही ढंग से बढ़ा रही थीं- ‘हिय सों कबहूं न बोलरे, कबहूं राम को राज, हिंदूपन पै दृढ़ रहै निस दिन हिंदु समाज।’

सोचिए, जब हम और आप नहीं थे तब इस देश को किसने एक रखा। हजारों साल की पराधीनता के बाद भी यदि तुलसी चौरा बचा रहा, उसमें दिया-बाती होती रही, अगर भगवान राम, श्रीकृष्ण और गणपति की कथाएं जन-जन में सुनी जाती रहीं, अगर राम-सीता विवाह की स्मृतियां बनी रहीं और अगर बजरंग बली की आराधना बनी रही तो हमारे मठ-मंदिरों, कवियों, लोक और जाग्रत समाज के कारण ही। जब-जब धर्म पर संकट आया, भगवान राम नाम ने ही उद्धार किया। ‘राम से बड़ा राम का नाम!’

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श्रद्धा का केंद्र हैं मठ : धर्म की रक्षा के लिए भारत में मठों की समृद्ध परंपरा है। विभिन्न मतों, विश्वासों, विभिन्न धर्मावलम्बियों की समान स्वीकार्यता भारत का वैशिष्ट्य रहा है। विभिन्न मठ अपनी-अपनी ज्ञान परंपरा के अनुसार भारत की आध्यात्मिक चेतना को एक सूत्र में बांधते आए हैं।

उड़ीसा का गोवर्धन मठ, कर्नाटक का शारदा पीठ, गुजरात में द्वारिका पीठ, उत्तराखंड के चमोली में स्थित ज्योतिर्मठ, यह चार मठ शंकराचार्य द्वारा स्थापित किए गए। इसके अतिरिक्त तमिलनाडु के कांचीपुरम में स्थित कांची मठ भारतवर्ष की सनातन परंपरा को जागृत करने में प्रमुख मठ माना जाता है, इसे आदि शंकराचार्य द्वारा तुंग नदी के किनारे चिकमंगलूर जिले में स्थापित किया गया। साथ ही साथ यहां रामचंद्रपुरा मठ भी अत्यंत प्रसिद्ध है। गोवा का गोदापदाचार्य मठ सन 740 में स्थापित हुआ। दक्षिण भारत के भीतर इस प्राचीन मठ के लिए बहुत श्रद्धा है!

इसके बाद बंगाल में स्वामी रामकृष्ण मठ का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है। इसे रामकृष्ण परमहंस के परम प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद जी ने हुगली नदी के किनारे स्थापित किया। स्वामी विवेकानंद ने भारत के पुनर्जागरण एवं आध्यात्मिक उत्थान में बहुत बड़ा योगदान दिया और उनके द्वारा स्थापित मठ आज भी उसी दिशा में सक्रिय है।

इसी प्रकार काशी मठ बनारस के ब्रह्म घाट पर स्थित है जो सारस्वत ब्राह्मणों द्वारा संचालित है। ऐसा ही महत्वपूर्ण है कर्नाटक का रामचंद्रपुरा मठ, जिसे पहले रघुथमा मठ के नाम से जाना जाता था।