बनियों का मंदिर

घटनाएं अक्सर पीछे ले जाती हैं । दो दिन पूर्व एक कार्यक्रम की सूचना के साथ लिखा था स्थान है बनियों का मंदिर । इसके साथ ही याद आया बेगमपुल से मेरठ कोलेज जाते हुए उलटे हाथ पर तिलक लेन पर एक कोठी थी ।जब भी वहाँ जाती थी तो एक मंदिर दिखाई देता था जिस पर लिखा था खटीकों का मंदिर।

इसी प्रकार धर्म स्थलों पर धर्मशाला भी अलग अलग उपनामों से होती है।


लगभग मित्रों दो तीन वर्ष पूर्व ज्ञात हुआ कि शमशान भूभि भी बिरादरी के नाम पर आवंटित होती है। पता नहीं परम्परा कबसे चली आ रही है ।लेकिन हमें तो अभी जानकारी मिली कि मुर्दे भी अपनी बिरादरी की शमशान भूमि में ही फुंकते हैं।

बात में बात निकली जयपुर के शमशान तक पहुँची । वहाँ भी अलग -अलग चिन्हित भूमि है अंतिम संस्कार हेतु।

बात बस इतनी है कि हम मुसीबत है तो एक हों  सभी की प्रबल इच्छा होती है । शोर भी बहुत करते हैं कि हिंदुओं एक हो जाओ वरना अस्तित्व खतरे में है । मान भी लेते हैं। क्योंकि समझदार लोग डरा देते हैं। एक अजीब सा अनजाना भय हृदय में बिठा देते हैं ।और लोग मान भी लेते हैं । परन्तु दिलों की गहराई में बसा हुआ जातिगत भेद समय - समय पर प्रकट भी करते रहते हैं ।इस विषय पर कम लिखे को अधिक ही समझिए।हम अपना समय और आपका समय बरबाद नहीं करना चाहते ।लेकिन हममें परस्पर जहर तो घुला ही है ।लाख प्रयास किया जाए कि हम एक रहें ऊँच नीच का भेद भी न रहे ।

मित्रों बात तो यह है कि जीते जी जो भेद की खाई होती है वह हमारे मरने पर भी पाटी नहीं जाती।क्योंकि हमारे शमशान भी जाति के आधार पर अलग बने हुए हैं ।उसी में संस्कार होता है ।दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे कहेंगे की जीते जी की बात को छोड़िए हम तो मर कर भी एक नहीं हैं ।अनेक में एक खोजते हैं परंंतु एक में अनेक के दर्शन हो जाते हैं।

मृत्युपरांत की पृथकता की कुरीति कब क्यों और कैसे पड़ी यह तो इतिहास विज्ञ ही बता सकते हैं ।

बात बस इतनी है मित्रों कि वही आँख ,कान,मुँह,हाथ पाँव सभी के तो हैं ।अहसासों की परिभाषाएँ भी एक जैसी ही हैं तब क्यों हम टुकड़े में बँटे  हैं ।और टुकड़े उठाने आसान है ।

एक हैं तो मजबूत हैं और बिखरे हैं एक दिन वह आएगा जब दुनिया की किताब में हम अपने नाम का पन्ना खोजेंगे परन्तु मिलेगा नहीं ।

सम्भलो भाई आज भी घोड़े पर बैठने की सजा मौत मिलती है।बारात में दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ सकता ।न जाने दबंगयी के कैसै-कैसे रूप हैं कि रुह काँप जाती है ।

सम्भलिए अभी भी वक्त है ।

क्षिति जल पावक गगन समीरा 

पंच तत्व मिल बनही शरीरा ।

बहुत ही सामान्य व सरल भाषा में अभिव्यक्ति की है ।शब्दों में पूर्वाग्रह नहीं है। लेकिन समझ सकें तो समझ कर अमल करने की कोशिश जारी रहे ।जहाँ मानव मात्र का मान सुरक्षित रहे ।


अनिला सिंह आर्य