जो जंगल में बसते थे अब नगर में डोलते हैं


 जो जंगल में बसते थे अब नगर में डोलते हैं  और हम उनसे डर कर डंडा,पत्थर हाथ में लेते हैं  तो वो हमसे डर कर आक्रामक होकर खूंखार हो रहे हैं। 

हमने उनके जंगल नष्ट कर दिये।फिर कहते हैं कि आतंक मचा रहे हैं। भूख लगती है तो डालियों से जो मिलता है उठाते हैं, दरवाजे खुले मिल जाये तो जो दिख जाये उठा कर भागते ही नहीं फ्रिज खोलकर दूध का पथरीला निकालते हैं और पीकर छोड़ वहीं रफूचक्कर हो जाते हैं। बात तेल मील की हो या सीकरी मार्ग की।वो इनके इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि डरते ही नहीं।

एक बार छाया पब्लिक स्कूल की सीढ़ियाँ चढ़ने पर अचानक निगाह गरीब कि साथ की दीवार पर पर वानर महाशय जी जा रहे थे। यकीन मानिये सांसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गयीं। 

कुसूर किसका है?बढ़ती आबादी,बढ़ता शहरी करण,अति विकसित सभ्यता को कहें जिसने अतिक्रमण कर दिया।इनके जीवन की स्वतंत्रता को विकास के कारागार में कैद कर दिया। 

इनके जीवन को ही नहीं अन्य वन्य जीवों की सांसों पर प्रतिबंध लगा दिया। 

परिणाम स्वरुप उपाय यही नजर आता है कि मान लीजिए या आदत डाल लीजिये इनके साथ जीने की। 

क्योंकि हम पीछे लौट नहीं सकते तो ये भी बेघर होकर सर छुपाने के लिए कहाँ जाएंगे? 

फिर भी कुछ अपने आंगन को इसलिये से बंद कर देते हैं ताकि ये इनको परेशान न करें। अर्थात पिंजरे में जानवर की अपेक्षा आदमी बंद हो रहा है।

कभी-कभी जंगल की  सीमा से शहर की सीमा में चीता,बाग, मगरमच्छ आदि के आने का हल्ला भी मच जाता है। अनेक विषयों पर हम अक्सर कहते हैं कि हम विकास के चरम पर पहुंच कर पुनः पाषाणचाल में प्रवेश कर गये हैं बात चाहे अंत में संस्कारों पर आकर ही टिक जाये।

कुछ भी कहिएगा जरूर ।

अनिला सिंह आर्य