भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की शुचिता और स्वच्छता पर खतरा लगातार गहराता जा रहा है। बेशक, कभी सार्वजनिक जीवन में बेदाग लोगों की वकालत की जाती थी, लेकिन अब यह आम धारणा है कि राजनेता और अपराधी एक-दूसरे के पर्याय हो चले हैं। ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ यानी एडीआर की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है। एडीआर की ताजा अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, 10 फरवरी को उत्तर प्रदेश की जिन 58 विधानसभा सीटों पर मत डाले जाएंगे, वहां से कुल 623 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इसमें से 615 उम्मीदवारों के बारे में एडीआर को सूचनाएं मिली हैं। इन 615 प्रत्याशियों में से 156, यानी करीब 25 फीसदी उम्मीदवार दागी हैं। 121 पर तो गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें दोषसिद्ध होने पर पांच साल या इससे भी अधिक की सजा वाले गैर-जमानती जुर्म शामिल हैं। जैसे, हत्या-अपहरण-बलात्कार आदि।
विडंबना यह है कि हरेक सियासी पार्टी राजनीति के अपराधीकरण पर चिंता जाहिर करती है और इसे रोकने के दावे करती है, लेकिन जब चुनाव में टिकट बांटने का वक्त आता है, तब दागी छवि वाले प्रत्याशियों पर भरोसा किया जाता है। यही वजह है कि चुनाव-दर-चुनाव ऐसे सांसदों-विधायकों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे होते हैं। उत्तर प्रदेश में ही 2017 के विधानसभा चुनाव में जीतकर आए 402 विधायकों में से 143 (36 प्रतिशत) ने अपने चुनावी हलफनामे में खुद के ऊपर आपराधिक मामले चलने की बात कही, जबकि गंभीर आपराधिक मामलों का सामना करने वाले विधायकों की संख्या 107 थी, यानी विधानसभा सदस्यों का 26 प्रतिशत। 2012 की राज्य विधानसभा में ये आंकड़े क्रमश: 47 प्रतिशत (189 विधायक दागी छवि वाले) और 24 प्रतिशत (98 विधायक गंभीर मामलों में आरोपी) थे।
यह महज एक राज्य का मसला नहीं है। एडीआर की ही रिपोर्ट बताती है कि संसद के निचले सदन में दागी छवि वाले सांसदों की मौजूदगी हर चुनाव में बढ़ रही है। मौजूदा लोकसभा के लिए 2019 में जीतने वाले 539 सांसदों में से 233, यानी 43 प्रतिशत सदस्यों ने खुद पर आपराधिक मामले होने की जानकारी दी है, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में 542 विजेताओं में से 185 दागी चुनकर आए थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत (543 सांसदों में से 162) था। यानी, 2009 से 2019 तक आपराधिक छवि वाले सदस्यों की लोकसभा में मौजूदगी 44 फीसदी बढ़ गई थी। इसी तरह, गंभीर आपराधिक मामलों में मुकदमों का सामना करने वाले सांसदों की संख्या 2009 में 76, 2014 में 112 और 2019 में 159 थी, यानी 2009 से 2019 तक इसमें 109 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।
चूंकि चुनाव-दर-चुनाव आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की जीत का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा है, इसलिए राजनीतिक दल भी मानो अब यह मान चले हैं कि दागी छवि जीत की गारंटी है। वैसे भी, चुनावों में हर हाल में जीत हासिल करना ही राजनीतिक पार्टियों का मकसद होता है। इसके लिए वे हर वह तरीका अपनाने को तैयार रहते हैं, जिनसे उनकी मौजदूगी सदन में हो।
कुछ जन-प्रतिनिधि यह तर्क देते हैं कि राजनीति से प्रेरित मुकदमे उनके ऊपर लादे गए हैं। यह कुछ हद तक सही भी है। मगर चुनाव आयोग और अदालत, दोनों का यह मानना रहा है कि जिन उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, उनको तो चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। चुनाव आयोग ने तो इसके लिए तीन मापदंड बनाए हैं- मुकदमा अगर साल भर से ज्यादा पुराना हो, उम्मीदवार पर पांच साल या उससे अधिक वर्ष की सजा वाले अपराध के आरोप हों और तीसरा, निचली अदालत में चार्जशीट पेश कर दी गई हो और कोर्ट ने उसे स्वीकार कर लिया हो। आयोग का मानना है कि इस तरह के उम्मीदवारों को चुनाव में टिकट नहीं मिलने चाहिए। मगर मुश्किल यह है कि राजनीतिक दल इन सिफारिशों को अपनाने को तैयार नहीं दिखते।
दागी छवि वाले एक और तर्क गढ़ते हैं कि कानूनन जब तक दोष साबित न हो जाए, वे निर्दोष हैं। मैं इसका जवाब एक अन्य सवाल से देता हूं। प्रश्न यह है कि हिन्दुस्तान की जेलों में चार से सवा चार लाख कैदी बंद हैं, जिनमें से 2.71 लाख के करीब विचाराधीन हैं। अदालत में उन पर मामले चल रहे हैं और वे अभी तक दोषी साबित नहीं हुए हैं, यानी निर्दोष हैं। ऐसे ‘निर्दोष’ लोगों के हमने कई मूल अधिकार छीन रखे हैं, जैसे कोई भी जीविकोपार्जन या व्यवसाय करने की आजादी का अधिकार, स्वतंत्र आवाजाही का अधिकार, सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार आदि। उनको तो मत देने का भी अधिकार नहीं होता। जब कानूनी दायरे में इन 2.71 लाख विचाराधीन कैदियों के कई अधिकार छीन लिए गए हैं, तब दागी छवि वाले उम्मीदवारों को कुछ दिनों तक चुनाव लड़ने से रोक देने में भला क्या दिक्कत है? वैसे भी, चुनाव लड़ना कोई मौलिक अधिकार नहीं है। अगर हम इनको कथित निर्दोष होने के आधार पर चुनाव लड़ने की छूट दे सकते हैं, तो इसी तर्क पर विचाराधीन कैदियों को रिहा क्यों नहीं कर सकते? उनसे उनके मौलिक अधिकार हम क्यों छीन रहे हैं?
राजनीति में अपराधीकरण को रोकने का एक उपाय नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) भी है। यह भारतीय मतदाताओं को मिला ऐसा अधिकार है, जिसके जरिये वे दागी उम्मीदवारों को आईना दिखा सकते हैं। जब चुनाव में नोटा में ज्यादा वोट आएं, तो चुनाव रद्द करके वहां दोबारा चुनाव कराने पड़ेंगे। इससे राजनीतिक दलों को भी यह एहसास होगा कि वे चुनावी समर में जिन उम्मीदवारों पर दांव लगा रहे हैं, मतदाता उनको पसंद नहीं करते। इससे वे आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों से दूरी बना सकते हैं। नोटा के दायरे में ही ‘नकारने का अधिकार’ लाया जाना चाहिए। जाहिर है, इसके लिए जन-जागरूकता की सख्त जरूरत है।
आदर्श स्थिति तो यही है कि राजनीतिक दल दागी प्रत्याशियों को टिकट ही नहीं दें। मगर कटु सच्चाई यही है कि विधायी सदनों में दागी सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। तो क्या जनता भी ऐसे उम्मीदवारों को पसंद करती है? फिलहाल इसका जवाब ठीक-ठीक नहीं दिया जा सकता, लेकिन एशियाई देशों को छोड़ दें, तो राजनीति में अपराधीकरण की प्रवृत्ति शायद ही कहीं और देखने को मिलती है।