उत्तर प्रदेश के चुनावी मौसम में विकास पर हावी हो जाती है धर्म की राजनीति

उत्तर प्रदेश के चुनावी मौसम में विकास पर हावी हो जाती है धर्म की राजनीति

सवाल ना हिंदू का है, ना मुसलमान का है, सवाल तो सबसे बड़ा यही है कि जब विकास हुआ तो फिर चुनाव में धर्म का क्या काम? इसके जवाब में हम एक लाइन जरूर कह सकते हैं कि सदियों से धर्म और राजनीति का चोली दामन का साथ है और यही उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिलता है।

भारत की राजनीति में धर्म और जाति का खूब इस्तेमाल किया जाता है। इसके साथ ही अगर यह भी कहे कि धर्म की राजनीति का प्रयोगशाला उत्तर प्रदेश है तो इसमें कोई दो राय नहीं होगी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में ध्रुवीकरण और तुष्टिकरण, दोनों समय-समय पर देखने को मिल जाता है। उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से विधानसभा के चुनाव होने है। चुनावी तारीखों का ऐलान भी हो गया है। सत्तारूढ़ भाजपा को अपनी सरकार वापस लाने की चुनौती है तो वहीं समाजवादी पार्टी पूरी टक्कर देने के लिए मैदान में है। जहां समाजवादी पार्टी एमवाई समीकरण के सहारे अपनी समीकरणों को मजबूत करने की कोशिश कर रही है तो वहीं भाजपा का दांव ओबीसी और सवर्ण समाज पर है। लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो पहले भी देखने को मिलता था और आज भी दिख रहा है। वह है धर्म की राजनीति। भाजपा जहां हिंदुत्व के मुद्दे को एक बार फिर से जोर-शोर से उठाने की कोशिश में है तो वही अपने जिन्ना वाले बयान के सहारे अखिलेश यादव भी मुसलमानों को साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं।

हाल में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के दौरान एक बयान दिया था। अपने बयान में प्रधानमंत्री ने कहा था कि यहां अगर औरंगजेब आता है तो शिवाजी भी उठ खड़े होते हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने एक ट्वीट में कहा था 31 वर्ष पहले अयोध्या जी में रामभक्तों पर गोलियां चलाई गई थीं। लेकिन जनता ने गोली चलवाने वालों को लोकतंत्र की ताकत का एहसास कराया और उस ताकत के आगे उन्हें झुकना पड़ा। अब अगर अगली कारसेवा हुई तो गोलियां नहीं चलेंगी, रामभक्तों और कृष्णभक्तों पर पुष्पवर्षा होगी।

हमने आपको यह दोनों बयान इसलिए बताएं ताकि आप समझ सके कि भाजपा इस चुनाव में किस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। 1991 के बाद से लगातार भाजपा हिंदुत्व के एजेंडे को आगे रखकर चुनावी मैदान में उतरती आ रही है। राम मंदिर आंदोलन के सहारे भाजपा ने हमेशा से ही हिंदुत्व को एक बड़ा मुद्दा बनाया है। वहीं, दूसरी तरफ भाजपा को पटखनी देने के लिए विपक्षी दलों ने मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है। यही कारण है कि सपा और बसपा जैसे दलों में कुछ मुस्लिम नेताओं को खूब आगे बढ़ाया गया। भाजपा तो यह भी आरोप लगाती है कि इन दलों की सरकार में शमशान बनाने के लिए कभी पैसे नहीं दिए जाते थे लेकिन कब्रगाह बनाने के लिए सरकार की तिजोरी खोल दी जाती थी। भाजपा यह भी कहती है कि सपा-बसपा के शासनकाल में राज्य में हिंदुओं को डराने की कोशिश की गई।

सवाल ना हिंदू का है, ना मुसलमान का है, सवाल तो सबसे बड़ा यही है कि जब विकास हुआ तो फिर चुनाव में धर्म का क्या काम? इसके जवाब में हम एक लाइन जरूर कह सकते हैं कि सदियों से धर्म और राजनीति का चोली दामन का साथ है और यही उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिलता है। चुनावी मौसम में विकास की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी हो जाती है। धार्मिक आस्था का ज्वार पैदा कर ही सियासी दल सिंहासन को हासिल करना ज्यादा आसान समझते है। चुनावी विश्लेषकों का यह मानना भी हो जाता है कि विकास के कामकाज भावनात्मक मुद्दे नहीं बन पाते, राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दे के सहारे ही चुनावी जीत पाती है। और यही कारण है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे राजनीतिक दल सत्ता में काबिज होने के लिए पूरी ताकत लगा देते है। 90 के दशक से ही भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश हिंदुत्व का सबसे विशाल प्रयोगशाला रहा। आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद की मदद से भाजपा ने यहां लगातार हिंदुत्व के ज्वार को जगाए रखा।

भाजपा इस बार के भी चुनाव में राम मंदिर, अनुच्छेद 370, अयोध्या, काशी, गाय, शमशान, मथुरा जैसे मुद्दे को खूब उठाएगी और ध्रुवीकरण की राजनीति की कोशिश होगी। दूसरी तरफ देखे तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस मामले में लेकर बहुत पीछे नहीं है। दोनों दल उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को साधने की कोशिश में है। यह तो माना ही जाता है कि अल्पसंख्यक का वोट भाजपा के पास बहुत कम जाता है। ऐसे में अल्पसंख्यक का वोट इस बार किसे ज्यादा हासिल होगा, इसको लेकर सपा और बसपा में लड़ाई है। कांग्रेस यहां भी चुनौती देती दिखाई दे रही है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों का भी अपना दबदबा है। वर्तमान में देखें तो 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 25 मुस्लिम विधायक है। यानी कि विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की हिस्सेदारी 6.2 फ़ीसदी है। राज्य में मुसलमानों का वोट 17% से ऊपर माना जाता है। लगभग 100 के आसपास ऐसी सीट है जहां मुसलमान हार जीत का फैसला करते हैं। यही कारण है कि विपक्षी दल उन्हें लगातार साधने की कोशिश करते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि 2022 में मुसलमान किसकी तरफ जाएगा? चुनावी विश्लेषक यह भी मानते हैं कि मुसलमान उत्तर प्रदेश में एक बड़ा वोट बैंक है, जो एकमुश्त होकर एक पार्टी को वोट करते हैं। भाजपा मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के लिए बहुत कुछ करती दिखाई नहीं दे रही है। हालांकि उसके नेताओं की ओर से यह जरूर कहा जाता है कि हमने सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ अगर हिंदुओं को दिया है तो मुसलमानों को भी दिया है। वहीं समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों के ही आधार पर अपनी राजनीतिक किस्मत चमकाती हुई दिखाई पड़ रही है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि विपक्ष की ओर से सिर्फ मुसलमानों पर ही डोरे डाले जा रहे हैं। अखिलेश यादव सॉफ्ट हिंदुत्व की भी राजनीति करते दिखाई दे रहे हैं। वे दावा कर रहे हैं कि अगर उनकी सरकार होती तो राम मंदिर को और भव्य तरीके से जल्द ही तैयार करवा दिया जाता। इसके साथ ही वह यह भी कह रहे हैं कि भगवान श्रीकृष्ण उनके सपने में आते हैं और यह कहते हैं कि अगली सरकार समाजवादी पार्टी की ही बनेगी। हाल में ही हमने देखा कि भगवान परशुराम के मंदिर में अखिलेश यादव गए थे। वहीं, मायावती भी ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरण को एक साथ करने की कोशिश कर रही है। ब्राह्मणों को लेकर उनकी ओर से काफी बैठक की जा रही है। देखना दिलचस्प होगा कि 2022 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति किस करवट जाती है। लेकिन यह बात तो तय है कि उत्तर प्रदेश में धर्म की सियासत इस बार भी खूब देखने को मिलेगी।