सौंदर्यशास्त्र

 सौंदर्यशास्त्र

“#शेष तुम्हें व्याकरण पता था ना ? ये अतिशयोक्ति अलंकार क्या होता है ?”

“कहाँ तो हम आपकी खूबसूरती में खोये हैं #ईति, कहाँ आप अतिशयोक्ति की बातें कर रही हैं सरकार ! हाउ बोरिंग !”

“वो रहने दो, तुम्हारी तारीफ़ कभी ख़त्म नहीं होने वाली, मुझे पता है | पहले अतिशयोक्ति बताओ |”

“कहाँ आपकी खूबसूरती, जिसे उपरवाले ने चाँद से तौलना चाहा तो चाँद का पलड़ा आसमान तक ऊँचा चला गया | ऊपर वाले तो अब तक उस पल्ले में तारे डाल डाल कर वजन बराबरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं ! और आप हो की हमसे ख़ूबसूरती की तारीफ छोड़कर, अतिशयोक्ति पूछने में लगी है !”

“अब ये तारीफ कुछ ज्यादा नहीं हो गई ! माय गॉड ! तराजू में ख़ूबसूरती तौलोगे, वो भी चाँद के कम्पेरीजन में | फिर चाँद का वजन इतना कम की उसका पल्ला असमान तक जाये, और तारों से वजन बराबर करने की कोशिश | माय गॉड देटस हिलैरियस !”

“हिलैरियस !! स्ट्रेंज इन्डीड !! आपने ही तो अतिशयोक्ति पूछी थी !”

“यू मीन, ये अतिशयोक्ति अलंकार था ?”

“यप्प ! ये हनुमान्नाटक का श्लोक है :

वदनम् अमृत-रश्मिं पश्य कान्ते तवोर्व्याम्

अनिल-तुलन-दण्डेनास्य वार्धौ विधाता |

स्थितम् अतुलयद् इन्दुः खेचरोऽभूल् लघुत्वात्

क्षिपति च परिपूर्त्यै तस्य ताराः किम् एताः ||”

रामायण के अनेक प्रसंगों से आप वाकिफ होंगे। जिसे आज रामेश्वरम् के नाम से जानते हैं वहां से श्री राम ने लंका तक जाने के लिए पुल बनवाया था। भविष्य में उस पुल का दुरूपयोग ना हो इस हेतु से राम रावण युद्ध के समाप्त होने पर राम उसी पुल को तुड़वा भी देते हैं। वैसे अभी भी सेटलाइट से ली गई तस्वीरों में एक पुल के अवशेष जैसा कुछ दिख जाता है। इसे बचाए रखने और तुड़वाने को लेकर भी विवाद रहा है।

फ़िलहाल विवादों को छोड़ते हैं और पुल पर ध्यान देते हैं। वानरों द्वारा समुद्र पर पुल बना देना अपने समय में ही नहीं, आज भी अनूठी घटना होती। जाहिर है लंका से लौटते समय सीता भी इस पुल को देखना चाहती थी। तो राम सीता आदि जब पुष्पक विमान से लंका छोड़कर अयोध्या के लिए निकले तो सीता बार बार नीचे झांककर पुल देखना चाहती थी। पुल तो वहां अब था नहीं, उन्हें नज़र कहाँ से आता ?

इस घटना का जिक्र हनुमन्नाटक में है। सीता बार बार पूछती हैं कि कहाँ है पुल मुझे तो नहीं दिखता ! राम हर बार झांक के कहते, है तो पुल वहीँ नीचे ! कई बार जब ये सवाल जवाब हो चुका तो सीता ने कहा आप मुझे बुद्धू बना रहे हैं। वहां कोई पुल नहीं दिखता। राम का जवाब समझने के लिए थोड़ा सा विज्ञान जानना होगा।

चाँद के असर से समुद्र में High tide और Low tide होता है। मतलब पूर्णिमा जैसे जैसे नजदीक आएगी, समुद्र का पानी और लहरें ऊपर उठती हैं। अमावस्या के आस पास समुद्र के पानी का स्तर नीचा हो जाता है। यही कारण होता है कि अक्सर पानी के जहाज रात के समय बंदरगाह के अन्दर आते हैं, और सुबह जैसे ही पानी का स्तर घटने से बंदरगाह का पानी समंदर में जाने लगता है तो जहाज उसी लहर के साथ आसानी से बाहर निकल जाते हैं। तो कवी के अनुसार श्री राम ने कहा था :-

दृष्टोऽयं सरितां पतिः प्रियतम! क्वास्ते स सेतुः परं?

क्वेति क्वेति मुहुर् मुहुसस् सकुतकं पृष्टे परं विस्मिते।

अत्रासीद् अयम् अत्र नात्र किमिति व्यग्रे निज-प्रेयसि

व्यावृत्तास्य-सुधानिधिः समभवन् मन्दस्मिता जानकी।।

यानि आपके चाँद जैसे मुखड़े को देखकर समंदर को भी ग़लतफ़हमी हो रही है, वो चाँद का निकट आना समझकर बार बार अपना स्तर बढ़ा लेता है, डूब जाता है इसलिए आप पुल नहीं देख पाती !

एक मुद्दा तो ये भी है, कि इतने इतने साल पहले किसी वैज्ञानिक को ही नहीं, कविता करने वालों को भी ये ज्वार भाटे का पता था मगर खैर।

शायद लड़कियों को बालों के डिज़ाइन में रूचि हो ! लड़कों को कई रंग बिरंगे भाव मुद्राओं में ! तो ऐसी 64 मूर्तियां हैं, जी बिलकुल चौंसठ ! हमें आश्चर्य हुआ देखके क्योंकि हमें हिंदी में गिनती 64 तक ही याद रहती है । उसके आगे हम सिक्सटी फाइव, सिक्सटी सिक्स, शुरू कर देते हैं मन ही मन । अपनी किताबों में सिग्नेचर भी पेज 64 पर ही करते रहे बरसों ।

तो हम जब पहुंचे हीरापुर तो बिलकुल सन्नाटा था । पंडित जी को सभी मूर्तियों के नाम याद थे । बाकी सभी मंदिरों की तरह ये मंदिर भी सरकारी है, यानि सारा चंदा, दान इत्यादि सरकार को जाता है । पुजारी तो बस अघोरियों के सम्मान में आये थे । बाकि समय भी इन्हें कोई आय नहीं होती मंदिर से, क्योंकि सारा पैसा सरकार को जाता है । वहां से हज की सब्सिडी दी जाती है । हमने सैलानियों के बारे में पुछा लेकिन वो भी कम ही आते हैं । हीरापुर वैसे तो भुवनेश्वर से सिर्फ पंद्रह किलोमीटर दूर है लेकिन टूरिस्ट के नक़्शे पे भुवनेश्वर के बाद पूरी है, कट्टक है, हीरापुर नहीं है ।

इन चौंसठ योगिनी की मुद्राओं में कई भंग हैं । ओह हाँ, काला पहाड़ ने तोडा था इन्हें । काला पहाड़ कौन ? जी ये वो हिन्दू मंत्री था जिसे एक मुस्लिम कन्या से प्रेम हो गया था । जब हिन्दू समाज ने इसे विवाह की इजाजत नहीं दी तो इसने इस्लाम अपनाया था और फिर लड़की से विवाह किया । इनका असली नाम था राजीव लोचन राय, और ये गजपति मुकुन्ददेव के सेनापति हुआ करते थे । विवाह के बाद सुलतान सुलेमान खुर्रानी की पेशकश पे इन्होने उनकी फ़ौज़ की कमान संभाली, हाँ शादी भी उन्ही की बेटी से की थी ।

तो जनाब ऐसा होता है इश्क़ ! नाम छोड़ा, धर्म छोड़ा, घर, परिवार, राजा, मित्र सभी छोड़ कर ये हिन्दू से मुस्लिम हुए और फिर ओडिसा पर इस्लामी हरा झंडा फहराया !

अब यहाँ अघोरी, तांत्रिक जैसे लोग जाते हैं । लेकिन जैसा की पहले बताया है 64 अलग अलग हेयर स्टाइल हैं मूर्तियों के! लड़कियों को तो आस पास से गुजरने पे जरूर जाने का मन करेगा।

कहानियां सीधी सपाट भी हो सकती हैं और चटकदार भी। अब सीधी कहानियों में भला किसी की क्या रूचि होगी? तो किस्सा कुछ यूँ है कि कुछ धोबी एक पत्थर को कपड़े पटक पटक कर धोने के लिए इस्तेमाल करते थे। अक्टूबर 1917 में एक दिन जब वो लोग एक सांप का पीछा कर रहे थे तो सांप उसी पत्थर के नीचे जा छुपा। लोगों ने पत्थर के नीचे खोदा और उसे पलटने की कोशिश की ताकि सांप को निकाल कर मारा जा सके। पत्थर पलटा तो दिखा कि ये तो कोई मूर्ती है!

काफी चिकनी, पॉलिश किये हुए बलुआ पत्थर की बनी ये मूर्ती संयोग से उसी वर्ष मिली थी, जब बिहार में संग्रहालय की स्थापना हो रही थी। ये वो दौर था जब बिहार, झारखण्ड और ओड़िसा के ज्यादातर प्रान्त एक बिहार ही थे, अलग अलग नहीं हुए थे। इस वजह से आज के ओड़िसा और झारखण्ड कि कई धरोहरों की तरह इसे भी पटना के संग्रहालय में जगह मिली। सुन्दर सी युवती की इस प्रतिमा का नाम आज दीदारगंज यक्षिणी, या दीदारगंज यक्षी पड़ चुका है।

प्राचीन भारत में सौन्दर्य के जो मानक थे, ये मूर्ती उसी के हिसाब से गढ़ी गई है। उन्नत वक्ष, क्षीण कटि, व्यापक नितम्ब और मांसल शरीर की इस नायिका के दाहिने हाथ में चौरी है। इसका बायाँ हाथ टूटा हुआ है। करीब 64 इंच, की ये मूर्ती सर से पैर तक पांच फुट दो इंच की है, यानी पूरी आदमकद। इसका भाव इसकी शारीरिक संरचना से भी आकर्षक है। भरे से गालों वाली ये मूर्ती बहुत हल्के से, दबी सी हंसी की मुद्रा में है। इसका दाहिना पैर थोड़ा सा मुड़ा हुआ है और मूर्ती सीधा तनकर नहीं, बल्कि आगे की तरफ झुकी सी खड़ी है।

इतिहासकार इसकी तिथि को पक्का पक्का निर्धारित नहीं कर पाए हैं। आर.पी. चन्द्रा का मानना है कि पॉलिश और चमक, कलाकृति, इस्तेमाल में लिए गए यक्षी के अलौकिक गुणों के आधार पर इसकी तुलना भरहुत के बौद्ध स्तूप की रेलिंग से की जा सकती है। वो इसे अशोक के काल में विदेशी कलाकारों के साथ मिलकर बनाई गई मगध के कलाकारों की कृति मानते हैं। जे.एन.बनर्जी गोल आकृति के आधार पर इस पहली सदी का मानते हैं। इस आराम से 2000 साल पुराना तो कहा ही जा सकता है।

इस स्तर की कलाकृतियाँ कम तो हैं मगर कुछ हमने मंदिरों की दीवारों पर देख रखी है। इसके बाद भी जैसे ये मूर्ती आकर्षित करती है, वैसे कोई और नहीं करती। फ़िलहाल ये बिहार म्यूजियम में दूसरे तल पर होती है, जहाँ का टिकट काफी महंगा है और हम कम जा पाते हैं। पर्यटन को बढ़ावा देने पर कभी जब बिहार सरकार विचार करेगी, तो उन्हें इस मूर्ती को भी याद रखना चाहिए। खींच कर बुला लेने की जैसी क्षमता यक्षिणी की मुस्कान की है, वैसी दूसरी ढूंढना मुश्किल होगा।

#भारतजोइतिहासकारोंकीनजरसेचूक_गया

आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित