परीक्षा समय और पाठ्यक्रम को छोटा करने की जरूरत

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 10वीं और 12वीं बोर्ड परीक्षाओं का एलान जरूर कर दिया है, लेकिन अब भी कई मामलों में स्पष्टता की दरकार है। अभी यह साफ नहीं किया गया है कि सिर्फ परीक्षा-कक्षों में कोरोना दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा, या फिर परीक्षा-प्रणाली और अगले साल के पाठ्यक्रम में भी कुछ सुधार किए जाएंगे, ताकि आगामी शैक्षणिक कैलेंडर को समय पर पूरा किया जा सके?
बेशक सरकार बच्चों की सुरक्षा को लेकर हरसंभव प्रयास करेगी, मगर परीक्षा के तौर-तरीकों को भी बदला जाना चाहिए। चूंकि मई-जून में ये परीक्षाएं आयोजित होंगी, इसलिए गरमी में बच्चों के लिए तीन घंटे तक मास्क पहनकर परीक्षा देना आसान नहीं रहेगा। इसलिए परीक्षा की अवधि को कम करने पर विचार किया जाना चाहिए। यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि प्रश्न-पत्र किस तरह से तैयार किए जाएंगे? इस संदर्भ में हम मशहूर भौतिकशास्त्री सीवी रमन से सबक ले सकते हैं। वह प्रश्न-पत्र में विकल्प दिया करते थे। मसलन, कुल 10 सवालों में पांच का जवाब देने को कहते या फिर केवल सातवें सवाल का जवाब। वह असल में, बच्चों की समझने की क्षमता परखा करते थे। हम भी परीक्षाओं में सवाल इस तरह से तैयार कर सकते हैं कि बच्चों की एनालिसिस (विश्लेषण), सिंथिसिस (भिन्न-भिन्न विचारों, धारणाओं का सम्मिश्रण), इवैल्यूएशन (मूल्यांकन) जैसी क्षमताओं को आसानी से जांच सकें।
सीबीएसई की चुनौती यह है कि उससे संबद्ध स्कूल देश के सुदूर इलाकों में भी हैं। बड़े शहरों में बच्चों के पास आधुनिक उपकरण हैं, जिसके कारण वहां उनके पाठ्यक्रम को पूरा करवाने के दावे किए जा रहे हैं और अब उनके सामने बच्चों से गतिविधियां करवाने की चुनौती है। मगर दूरदराज के स्कूलों में पढ़़ने वाले छात्रों के पास ऐसी सुविधा नहीं है। लैपटॉप या टैबलेट की बात तो दूर, उनके पास स्मार्टफोन तक नहीं। परेशानी स्कूलों की भी है। कुछ जगहों पर अभिभावक स्कूलों को ट्यूशन फीस तो दे रहे हैं, पर अधिकांश इलाकों में स्कूल खाली हाथ हैं। ऐसे में, शिक्षण संस्थान शिक्षकों को समय पर तनख्वाह तक नहीं दे पा रहे। लिहाजा स्कूल प्रबंधन नए शैक्षणिक वर्ष में अपने लिए उम्मीदें देख रहे हैं।
हालांकि, इस बार जब परीक्षाएं देरी से होंगी, तो अगला सत्र भी विलंब से शुरू होगा। इसलिए उस सत्र का पाठ्यक्रम कम समय में पूरा करने की कवायद होगी। अकादमिक पेशेवर रुख का ख्याल रखकर ही पाठ्यक्रम को छोटा करने का प्रयास करना चाहिए। हर पाठ्यक्रम में मूलत: ‘इनबिल्ट हाइरार्की’ सुनिश्चित करनी होती है, जब हम पाठ्यक्रम को कम करते हैं, तो इस पदानुक्रम के नुकसान पहुंचने का अंदेशा होता है। इसी कारण यह प्रक्रिया विशेषज्ञ की देखरेख में ही होनी चाहिए।
दुनिया के कुछ देशों में बच्चों को शुरुआत में ही लैपटॉप दे दिया जाता है। चूंकि उनका मानना है कि छोटे बच्चों को इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के माध्यम से शिक्षा देनी है, तो उनकी स्क्रीन बड़ी होनी चाहिए। फिर, शिक्षकों को इतनी स्वायत्तता मिली होती है कि एक ही कक्षा में दो बच्चों को उनकी गति से वे सिखाते हैं। सीखने की उनकी क्षमता के आधार पर रीडिंग व गणित जैसे विषयों में उनका स्तर तय किया जाता है। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं होता कि साल के अंत में जब शैक्षणिक कैलेंडर खत्म हो रहा हो, तो बच्चों में समझ के स्तर पर जो असमानता थी, वह बरकरार रहती है। इस अंतर को दूर करने का दायित्व अध्यापकों का होता है। 
यहां 1957 की एक घटना का जिक्र भी उचित होगा। उस वक्त रूस ने पहला कृत्रिम उपग्रह स्पूतनिक-1 अंतरिक्ष में भेजा, तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई। अमेरिका में उस वक्त खास तौर से पठन-पाठन पर चिंता जताई गई। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर के आह्वान पर देश के शीर्ष वैज्ञानिक प्रयोगशाला छोड़कर पाठ्यक्रम विकास में लग गए। संशोधित पाठ्यक्रम बेशक बड़े थे, पर उसमें एक शर्त भी थी कि अध्यापक बुनियादी अध्याय जरूर पढ़ाएं, बाकी अध्याय छात्र खुद-ब-खुद समझ जाएंगे। जाहिर है, हमारे यहां भी ऐसी पहल की जा सकती है। यहां भी विशेषज्ञ समूह बनें और वे समयानुकूल पाठ्यक्रम में संशोधन करें। यह शैक्षणिक व्यवस्था के हित में होगा।