बिहार का रण इतना आसान कहां...छोटे दलों के गठबंधन भी डालेंगे चुनाव पर असर, कैसे बिगड़ सकता है जीत-हार का समीकरण

बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार में सभी पार्टियां पूरी ताकत झोंक रही हैं। कोई भी दल एक-दूसरे को घेरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहा है। जदयू-भाजपा और राजद-कांग्रेस गठबंधन के बाद सबसे अक्रामक रुख ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट का है। फ्रंट में शामिल पार्टियों के जातीय समीकरणों को जोड़ लिया जाए, तो फ्रंट सीट भले ही नहीं जीते, पर खेल बिगाड़ सकता है।राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) की अगुआई वाली इस सेकुलर फ्रंट में बसपा और एआईएमआईएम सहित कई दूसरी छोटी पार्टियां शामिल हैं। आंकड़े बताते हैं कि यह पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ती है, तो बहुत ज्यादा असरदार साबित नहीं होती है। पर जब कई छोटी-छोटी पार्टियों का वोट एक साथ मिल जाता है, तो उसका असर बढ़ जाता है।


आरएलएसपी ने 2015 के चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन में 23 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, इसमें से दो सीट पर जीत हासिल हुई थी। पर वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव आरएलएसपी ने महागठबंधन के साथ लड़ा, पर वह कोई भी सीट नहीं जीत पाई। ऐसे में पार्टी अकेले चुनाव लड़ती तो आरएलएसपी के लिए इस बार लड़ाई मुश्किल होती।


एआईएमआईएम भी पिछले चुनाव में सिर्फ 0.25 फीसदी वोट हासिल कर पाई। पर इस बार बसपा भी सेकुलर फ्रंट में शामिल हैं। बसपा को वर्ष 2015 में दो फीसदी वोट मिला था। ऐसे में इन सभी पार्टियों को वोट बैंक जोड़ लिया जाए, तो कुछ सीट पर यह निर्णायक साबित हो सकता है। इन सीट पर मुस्लिम के साथ दलित और अन्य वोट मिल जाए, तो जीत हो सकती है।


सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार मानते हैं कि बिहार के पिछले चुनावों में करीब बीस फीसदी वोट छोटे दलों को मिला था। यह दल अलग-अलग होते हैं, तो यह बिखरा रहता है, पर जब कुछ दल एक साथ मिल जाते हैं, तो कुछ सीट पर यह वोट असरदार साबित होता है। ऐसे में यह दल चुनाव में एक-दो सीट जीत सकते हैं। सीमांचल के चार जिले- किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया की चालीस सीटों पर अल्पसंख्यक मतदाताओं की तादाद अच्छी-खासी है। किशनगंज में करीब सत्तर फीसदी मुस्लिम मतदाता है। ऐसे में इन सीटों पर सेकुलर फ्रंट के किसी उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बनता है, तो वह सीट निकाल सकता है। यह स्थिति किसी आरक्षित सीट पर भी हो सकती है।