आम बहस का रुख मोड़ सके

पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उससे हमें हैरान नहीं, परेशान होना चाहिए। वहां हालात जब कभी भी खराब होते हैं, तो अफगानिस्तान, ईरान, भारत जैसे पड़ोसी देशों में आतंकवादी गतिविधियों का खतरा बढ़ जाता है। बेशक दहशतगर्दी पाकिस्तान की विदेश नीति का हिस्सा है, लेकिन घरेलू तनाव की स्थिति में वह अपने इस हथियार का कहीं ज्यादा इस्तेमाल करने लगता है, ताकि आम बहस का रुख मोड़ सके।
वहां असल में, इमरान खान की हुकूमत के खिलाफ पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के बैनर तले विपक्ष का बड़ा आंदोलन चल रहा है, लेकिन अब सिंध पुलिस के बगावती तेवर से स्थिति ज्यादा बिगड़ गई है। इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत विपक्ष की 18 अक्तूबर की कराची रैली से हुई, जिसमें इमरान सरकार को जमकर निशाने पर लिया गया था। अपने ऊपर हुए तीखे हमलों से तिलमिलाए इमरान खान ने अगले ही दिन सिंध प्रांत के मुख्यमंत्री पर नवाज शरीफ के दामाद और मरियम नवाज के शौहर कैप्टन मोहम्मद सफदर की गिरफ्तारी का दबाव बनाया। जब मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तब उन्होंने पाकिस्तानी रेंजर्स को सिंध पुलिस के माध्यम से यह कार्रवाई सुनिश्चित करने का आदेश दे दिया। रेंजर्स ने आईजी स्तर के एक अधिकारी को अगवा कर लिया और उनसे जोर-जबर्दस्ती करके गिरफ्तारी के ऑर्डर पर हस्ताक्षर ले लिए। नतीजतन, सिंध पुलिस ने विद्रोह कर दिया। 
हालांकि, विवाद बढ़ने के बाद कैप्टन सफदर को रिहा कर दिया गया है। मगर दिलचस्प यह है कि इमरान खान की इस हरकत से सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा अनजान थे, और अब उन्होंने इस पूरे मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। वह नहीं चाहते कि पाकिस्तान के हालात इस कदर बिगड़ जाएं कि उन्हें संभालना मुश्किल हो जाए। उन्हें यह भी डर है कि अवाम सरकार के खिलाफ ही नहीं, फौज के विरुद्ध भी सड़कों पर उतर सकती है, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। और अगर ऐसा हुआ, तो फौजी हुक्मरानों के लिए मुश्किलें बहुत बढ़ जाएंगी।
जाहिर है, पाकिस्तान के मौजूदा हालात उसके सबसे खराब दौर से भी बुरे हो चले हैं। एक राजनयिक की नजर से मैं अब तक याह्या खान के शासन को पाकिस्तान की बदनसीबी मानता रहा हूं। उस समय की हुकूमत ने पूर्वी पाकिस्तान पर बर्बर जुल्म ढाए थे। नेतृत्व की अय्याशी का दंड राष्ट्र ही भुगतता है। 1971 में भी यही हुआ और बांग्लादेश के रूप में पाकिस्तान का बंटवारा हो गया। पर आज हालात उससे ज्यादा बदतर कैसे हैं? 
पहला कारण है, अवाम का हुकूमत के प्रति गहराता अविश्वास। अब तक विपक्षी दल या नेतागण ही हुकूमत और वजीर-ए-आजम पर हमलावर होते रहे हैं, लेकिन अब जनता भी इमरान खान को निकम्मा और विफल मानने लगी है। वह खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है, क्योंकि जिस वादे के साथ इमरान सत्ता में आए थे, वे तो पूरे नहीं ही हुए, अपनी अदूरदर्शिता से उन्होंने हालात और बिगाड़ दिए हैं। दिक्कत यह है कि उनके आसपास के मंत्री भी अक्षम साबित हो रहे हैं। घोटालेबाजों पर कड़ी कार्रवाई का भरोसा वजीर-ए-आजम ने दिया था, लेकिन उनके करीबी दोस्त पर ही चीनी घोटाले के दाग लगे हैं। इससे लोग अपने साथ विश्वासघात होने की बात कहने लगे हैं।
दूसरी वजह सेना प्रमुख का रवैया है। पूर्व में जब कभी फौज किसी जम्हूरी नेता से नाराज होती थी, तो उसे गिरफ्तार करके या देश निकाला देकर सत्ता अपने हाथ में ले लेती थी। मगर पिछले तीन-चार साल से उसने परदे के पीछे से यह काम करना शुरू किया है, ताकि सीधा आरोप उस पर न लगे। इसी नीति के तहत इमरान खान को परोक्ष रूप से आगे बढ़ाया गया था। लेकिन मौजूदा हालात बता रहे हैं कि उसका यह प्रयोग नाकाम साबित हुआ है। स्थिति यह हो गई है कि 16 अक्तूबर को पंजाब के गुजरांवाला रैली में विपक्षी नेताओं, खासकर नवाज शरीफ ने सीधे-सीधे फौजी हुक्मरानों पर हमला बोला, जो कि एक असामान्य घटना थी। यही वजह है कि सिंध में सेना प्रमुख ने तुरंत दखल दिया और अगवा आईजी को यह भरोसा दिया गया कि 10 दिनों में पूरे मामले की जांच कराई जाएगी।
मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अवाम को यह भी यकीन हो चला है कि इमरान खान भूत-प्रेत के कब्जे में हैं, क्योंकि उनकी नई बेगम बुशरा बीबी जानी-मानी पीर हैं। फिर, लोगों की मुश्किलें टाइगर फोर्स के अत्याचार से भी बढ़ गई हैं, जिसका गठन इमरान सरकार ने 10 लाख बेरोजगारों को रोजगार देने के नाम पर किया है। प्रधानमंत्री की दिक्कत यह भी है कि वह तुर्की को इस्लामी दुनिया का मुखिया तो बनाना चाहते हैं, लेकिन उसकी तरह अपने यहां फौज के अधिकार सीमित नहीं करना चाहते। हालांकि, उनकी इस कवायद से सऊदी अरब जरूर नाराज हो गया है, जो पाकिस्तान को खासा इमदाद दिया करता था।
तो क्या इमरान खान के जाने की बेला आ गई है? पाकिस्तान का इतिहास यही बताता है कि वहां हर प्रधानमंत्री को दो-ढाई साल में पद से हटा दिया जाता है। मगर यह अमूमन मार्च में होता है। चूंकि अब यह महीना ज्यादा दूर नहीं है, इसलिए संभव है कि इमरान खान को सत्ता से बेदखल कर दिया जाए। और यदि ऐसा नहीं हुआ, तो बढ़ता जनाक्रोश कोई नई पटकथा लिख सकता है।
साफ है, पाकिस्तान में आने वाले महीने उथल-पुथल के होंगे। इसका भौगोलिक सीमाओं पर क्या असर पड़ेगा और भारत में किस कदर आतंकी गतिविधियां बढ़ाने की कोशिश की जाएगी, इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा। एक इंटरव्यू में इमरान खान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर मोईद यूसुफ ने साफ-साफ कहा भी कि पाकिस्तान अपनी गतिविधियां बढ़ाएगा। ऐसे में, हमें सचेत  रहना होगा और वहां के हालात पर नजर बनाकर रखनी होगी। हमारी यही नीति रही है कि हम दूसरे मुल्क के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते। यही मुनासिब भी है, क्योंकि पाकिस्तान एक ऐसी दलदल है, जिससे अमेरिका व सऊदी अरब जैसे देश भी पार नहीं पा सके। मगर आने वाले दिनों में यदि वहां पठान से लेकर मुहाजिर, और बलूच से लेकर सराइकी पंजाबी (दक्षिण-पश्चिम पंजाब के लोग) विरोध की आवाज बुलंद करते हैं, तो हमें भी वहां के मानवाधिकार की बातें उठानी ही होंगी। मगर फिलहाल ऐसी नौबत नहीं आई है।