सम्पादकीय
हिंसक विरोध
सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान देश की अर्थव्यवस्था को और पटरी से नीचे ले जाएगा। मगर सरकार से भी अपेक्षा की जाती है कि ऐसे मौकों पर वह बातचीत के जरिए हल निकालने का माहौल बनाए। चुप्पी साधे रखने से बात नहीं बनेगी। अगर सरकार के किसी फैसले को लेकर आंदोलन छिड़ता है, तो सरकार का फर्ज है कि उसे शांत करने की पहल करे, न कि दमन का रास्ता अख्तियार करे।

एक बार फिर नौजवान हिंसक आंदोलन पर उतर आए हैं। देश के विभिन्न शहरों में रेल की बोगियों, स्टेशनों, बसों आदि को आग के हवाले कर दिया गया। कहीं-कहीं भाजपा विधायकों के वाहनों, भाजपा कार्यालयों पर भी हमले हुए। यह सब सेना में भर्ती की नई नीति के विरोध में हो रहा है। सरकार ने अग्निपथ योजना के तहत सेना में चार साल के लिए भर्ती की नीति बनाई है, जिसमें न तो संतोषजनक वेतन तय किया गया है, न पेंशन और न दूसरी सुविधाओं को शामिल किया गया है।
कोरोना काल में दो साल सेना में भर्ती रुकी रही। फिर जब खोली गई है, तो नई योजना के तहत। सरकार ने इस योजना को विज्ञापनों के माध्यम से कुछ इस तरह बढ़-चढ़ कर प्रचारित किया, मानो इससे युवाओं को बहुत लाभ मिलने वाला है और भारतीय सेना अधिक ताकतवर होकर उभरेगी।
इस योजना की घोषणा रक्षामंत्री और सेना के तीनों प्रमुखों ने मिल कर की। मगर जैसे ही योजना का विवरण सार्वजनिक हुआ, नौजवानों का आक्रोश फूट पड़ा। सबने सवाल किया कि चार साल की ही चाकरी क्यों? उसके बाद नौजवान क्या करेंगे, कहां जाएंगे। हालांकि सरकार ने समझाने का प्रयास किया कि इस सेवा से निकलने के बाद युवाओं को दूसरे सुरक्षाबलों में जगह दी जाएगी, मगर इससे वे संतुष्ट नहीं हैं और आंदोलन बढ़ता जा रहा है।हालांकि सरकार का कहना है कि उसने बहुत विचार-विमर्श और दूसरे देशों की रक्षा प्रणाली का अध्ययन करने के बाद इस योजना की रूपरेखा तैयार की है। इससे देश की सेना में सबसे ऊर्जावान युवाशक्ति होगी। कई देशों में ऐसी योजनाएं हैं कि वहां युवाओं को अपने जीवन के कुछ साल सेना को देने होते हैं, उसके बाद वे दूसरी सरकारी नौकरियों या अपने निजी काम-धंधों का चुनाव कर सकते हैं।
मगर हमारे देश में उस व्यवस्था की नकल नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां दुनिया की सबसे अधिक बेरोजगार नौजवान आबादी है और उनमें से ज्यादातर सेना में इसलिए भी जाना चाहते हैं कि वहां जगहें अधिक निकलती हैं और उसमें पेंशन आदि की सुविधा लागू है। हमारे यहां भविष्य की सुरक्षा की चिंता अधिक है। दूसरे देशों में यह स्थिति नहीं है। मगर सरकार ने इस पक्ष पर या तो गंभीरता से विचार नहीं किया या उसे अपने खर्चे बचाने की चिंता अधिक थी। अब न केवल नौजवान, बल्कि अनेक रक्षा विशेषज्ञ और राजनीतिक दल इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं।
इस योजना को लागू करने के बाद अब भी सरकार ठीक से समझा पाने में विफल दिख रही है कि इसके लाभ क्या हैं। यही स्थिति कृषि कानूनों को लेकर थी। इस तरह इस आांदोलन के अभी और खिंचने के आसार हैं। किसी भी नीति या फैसले को लेकर एतराज होने पर विरोध प्रदर्शन करना नागरिकों का सांविधानिक अधिकार है। मगर अपनी बात मनवाने या सरकार पर दबाव बनाने के लिए हिंसा का सहारा किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से ही होना चाहिए।
सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान देश की अर्थव्यवस्था को और पटरी से नीचे ले जाएगा। मगर सरकार से भी अपेक्षा की जाती है कि ऐसे मौकों पर वह बातचीत के जरिए हल निकालने का माहौल बनाए। चुप्पी साधे रखने से बात नहीं बनेगी। अगर सरकार के किसी फैसले को लेकर आंदोलन छिड़ता है, तो सरकार का फर्ज है कि उसे शांत करने की पहल करे, न कि दमन का रास्ता अख्तियार करे।