क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए हम किसी विशेष दिन के मोहताज क्याें हैं...?
अमुमन मैं हर रोज ही सुबह करीब 8 बजे तक सोकर उठता हूं आज सुबह भी मैं अपने नियत समय से ही नींद से जागा और जितनी देर में धर्मपत्नी चाय लेकर आती मैंने अपने मोबाइल का नेट चालू किया और आदतन सोशल मीडिया पर अपने फेसबूक और व्हाट्स ऐप अकांउट को खंगालना शुरू किया। देखा तो क्या फेसबुक और क्या व्हाट्स ऐप सभी ना सिर्फ अर्न्तराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाओं से अटे पड़े थे बल्कि तमाम लोगों ने योग की विभिन्न मुद्राओं में योग करते हुए बाकायदा अपने फोटो भी सांझा किये हुए थे। इसी दौरान धर्मपत्नी चाय की प्याली मेरे पास रख गई और मैंने चाय की चुस्कीयां लेते हुए अपने सोशल मीडिया अकांउट को इस मनोदशा के साथ ऊपर नीचे खगालना शुरू किया की शायद योग दिवस के अलावा कोई अन्य पोस्ट नजर आ जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ हर जगह सिर्फ और सिर्फ अर्न्तराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं और योग मुद्रा बनाए योग करने में लीन लोग ही नजर आये।
ऐसा नहीं है कि मैं योग अथवा योग करने वालों के किसी भी तरह से खिलाफ हूं या उनका आलोचक हूं दरअसल अर्न्तराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर जब दुनियांभर में लोग योग करने और शुभकामनाएं देने में व्यस्त हैं तो अंजानें में एक सवाल जेहन में सिर उठाने लगा कि आखिर हम अपनी भावनाओं के प्रदर्शन के लिए किसी एक विशेष दिन के ही मोहताज क्याें हैं...?
आखिर क्यों हमारी भावनाएं किसी दिन विशेष ही जागृत होती हैं और दिन ढलने के साथ ही इन भावनाओं में आया ज्वारभाटा शांत पड़ जाता है ?
दो दिन पीछे का रूख करें तो अभी दो दिन पूर्व ही पूरे विश्व में फादर्स डे की धूम मची हुई थी जिसे देेखो वो पिता की महिमा का सोशल मीडिया पर बखान करते हुए यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहा था कि वह इस दुनियां का सबसे बड़ा पितृ भक्त है और उससे अधिक अपने पिता से कोई अन्य व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता है और ना ही सम्मान, ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या माता पिता या किसी अन्य रिश्तें को किसी दिन विशेष से परिभाषित किया जा सकता है? तो ज्यादातर लोगों का जवाब नहीं में ही होगा।
दरअसल हम सब पूरी तरह दिखावा पसंद और गैरजिम्मेदार हो चुके हैं और अपनी भावनाओं,अपनी आस्था और प्रेम को व्यक्त करते समय भी ईमानदारी बरतने से पूरी तरह परहेज करते हैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हम मदर्स और फादर्स डे पर सोशल मीडिया के मंचों से अपने माता पिता के लिए अपने प्रेम, सम्मान और आदर की अभिव्यक्ति तो करते हैं लेकिन इस सच्चाई को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि दुनियांभर में हजारों वृद्ध आश्रमों में रह रहे लाखों बुर्जुग हमारे द्वारा ही निष्कासन का दंश झेलने के लिए मजबूर हैं। इसके अलावा भी हम आज के परिवेश में ताउ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा रिश्ते और अपने सगे भाई बहनों जैसे अन्य सामाजिक रिश्तों को किस हद तक तरजीह दे रहे हैं यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। हमारे दिलों में सम्मान सिर्फ एक बेहतर नजर आने वाला शब्द मात्र है। हम सिर्फ और सिर्फ सामाजिक अथवा धार्मिक या देशभक्त होने का दिखावा मात्र कर रहे हैं और वो भी पूरी बेशर्मी के साथ, और सिर्फ सामाजिक ही नही कई मौकों पर हम खूद को आला दर्जे का धार्मिक सिद्ध करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं। धार्मिक मौकों पर आमतौर पर देखा जा सकता है कि हम धार्मिक अनुष्ठानों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, नवरात्रें में नो दिन पूरी आस्था से देवी की पूजा अर्चना करते हैं, देश भर में स्थित देवी के मंदिरों की परिक्रमा करते रहते हैं और नवरात्र में कन्याओं को देवी रूप मान कर उनकी पूजा करते हैं उन्हें भोजन कराकर उनके चरण झूकर आर्शिवाद प्राप्त करते हैं लेकिन जिस कन्या को हम देवी रूप में पूजते हैं उसी कन्या की गर्भ में हत्या करने से भी नहीं हिचकिचाते। देवी के जिस स्त्री रूप को हम पूजते हैं उसी स्त्री का दहेज और अन्य मामलों में मानसिक और शारिरिक उत्पीड़न यहां तक की उसकी हत्या करने से जरा भी नहीं हिचकिचाते, कैसी विडम्बनाओं का, कैसी आस्थाओं का देश है ये, जहां कि हम लोग रह रहे हैं और आए दिन अपनी गलत और बेबुनियादी धारणाओं को अपनी सच्ची-झूठी दलीलों से सही साबित करने के प्रयास में लगे रहते हैं। किस सदी के लोग हैं हम, जहां हम अपने रिश्तों के प्रति सम्मान प्रेम व्यक्त करने के लिए किसी दिन विशेष के मोहताज हैं। मेरा मत है कि दिन के हिसाब से अपने प्रियजनों को सम्मान देने और स्मर्ण करने की इस परम्परा को हमारे खुद के द्वारा पूरी तरह दरकिनार किया जाना चाहिए आखिर हमारे माता-पिता, भाई-बहन और वे तमाम रिश्ते-नाते हमारे द्वारा प्रत्येक दिन सम्मान पाने और स्मर्ण रखे जाने के हकदार क्यों नहीं हो सकते हैं। मेरा मानना है कि ऐसा हो सकता है लेकिन उसके लिए हमे अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। हमे अपने रिश्तों के प्रति लगाव पैदा करना होगा और अपने भीतर रिश्तों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास जगाना होगा। और जब ऐसा होगा तो हमें हमारे सामाजिक रिश्ते-नातों की अहमियत पता लगेगी
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि हमारे भीतर रिश्तों के प्रति गंभीरता, जिम्मेदारी और लगाव पैदा हो गया तो हमें रिश्तों का उत्सव मनाने के लिए कभी किसी दिन विशेष की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही हमारी धार्मिक आस्था भी सार्थक साबित होगी।