आसमान छूने को बेताब (संपादकीय)

संपादकीय

उत्तर प्रदेश का चुनावी रोमांच अभी से आसमान छूने को बेताब है। अखिलेश यादव की अगुवाई में तेजी से उभरे गठबंधन और भारतीय जनता पार्टी के किले में सेंधमारी करके आए सियासी सूरमाओं ने अप्रत्याशित समीकरण रच दिए हैं। क्या उत्तर प्रदेश में मंडल बनाम कमंडल की पुरानी लड़ाई नए रूप-स्वरूप में लड़ी जाने वाली है?

लगता तो ऐसा ही है। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बार-बार अयोध्या की यात्रा कर यही संदेश देने की कोशिश की कि राम नाम की पताका फहराने का कॉपीराइट सिर्फ भगवा दल के पास है। उनके वहां से चुनाव लड़ने की खबर भी उड़ी, पर न जाने क्यों, उनका इरादा बदल गया। वह अब गोरखपुर शहर से लड़ेंगे। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी मथुरा की बात उठाकर धर्म और राजनीति के मिश्रण को नई रंगत देने की कोशिश की। इस राग को आगे चलकर मुख्यमंत्री ने भी स्वर दिए कि जब अयोध्या में भव्य मंदिर बन सकता है और काशी में विश्वनाथ कॉरिडोर, तो फिर भला मथुरा नगरी कैसे पीछे रह जाएगी? इससे कुछ पहले खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘विश्वनाथ धाम’ के नए स्वरूप का भव्य लोकार्पण किया था। संदेश स्पष्ट है। भारतीय जनता पार्टी धर्म और विकास की कॉकटेल के सहारे चुनावी समर को जीतने की जुगत करेगी। 

जो लोग मानते हैं कि सत्तारूढ़ दल ने महज धर्म को ही आधार बना रखा है, वे गलत हैं। सरकारी आंकडे़ बताते हैं कि अब तक उत्तर प्रदेश में कुल 43 लाख गरीबों को आवास दिए गए हैं। 15 करोड़ लोगों को प्रतिमाह प्रति इकाई पांच किलो अतिरिक्त राशन मिल रहा है। 4.5 लाख को सरकारी नौकरी व 3.5 लाख लोगों को संविदा पर नौकरी और 25 लाख लोगों को ‘रोजगार’ प्रदान करने का दावा भी किया गया है। 1.41 करोड़ लोगों को मुफ्त बिजली कनेक्शन, तो 1.67 करोड़ लोगों को नि:शुल्क गैस सिलेंडर मुहैया कराए गए हैं। राज्य सरकार का कहना है कि प्रदेश में गन्ना किसानों को 1.5 लाख करोड़ रुपये का बकाया भुगतान किया जा चुका है, जिसमें पिछली सरकार का ‘बकाया’ भी शामिल है। 
क्या यह पर्याप्त है?  
बताने की जरूरत नहीं कि किसान आंदोलन के साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति ने करवट लेनी शुरू कर दी थी। प्रधानमंत्री ने जब तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की, तब किसानों के साथ प्रतिपक्षियों को भी लगा कि इस मुद्दे से लाभ उठाया जा सकता है। कोई भी पार्टी या सत्तानायक कुछ भी कर ले, पर उत्तर प्रदेश जैसे विशाल सूबे में कहीं न कहीं चूक रह जानी स्वाभाविक है। खेतों में  छुट्टा पशुओं का आतंक, महंगाई, बेरोजगारी आदि ऐसे मुद्दे थे, जिनसे आंखें नहीं चुराई जा सकती थीं। यही नहीं, सरकार ने रोजगार के जो भी दावे  पेश किए हैं, विपक्षियों ने उन्हें नाकाफी साबित करने में कोई  कसर नहीं छोड़ी। 
भाजपा के असंतुष्ट और विपक्षी नेता पहले से ही फैला रहे थे कि सरकार ब्राह्मणों के खिलाफ है। कुछ सरकारी अधिकारियों को इंगित करके कहा जाने लगा कि ये मुख्यमंत्री की जाति के हैं, इसलिए जन-प्रतिनिधियों की उपेक्षा कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ ने निजी तौर पर बहुत मेहनत की और उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है, पर बात यहीं नहीं रुकी। स्वामी प्रसाद मौर्य के बाद दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी और अब तक 11 विधायकों ने इस्तीफा देकर साबित करने की कोशिश की कि सरकार दलित-पिछड़ा विरोधी है। भाजपा के प्रवक्ताओं ने उन्हें दलबदलू और अवसरवादी साबित करने की कोशिश की, पर पांच वर्ष पूर्व इन नेताओं का उपयोग भगवा दल ने भी चुनाव जीतने के लिए किया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2013 में रचे गए ‘मुजफ्फरनगर मॉडल’ और अति-पिछड़ों के इस संयोग ने 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में भगवा पताका फहराने की राह प्रशस्त की थी।  
पहले किसान आंदोलन और अब इस भगदड़ ने सियासी चक्रवात की गति बाधित कर दी है। अखिलेश यादव पहले से मुस्लिमों और यादवों के एकछत्र नेता माने जाते थे। यदि उन्हें अति-पिछड़ों के बड़े वर्ग का समर्थन हासिल हो गया, तो वह यकीनन अपनी मौजूदा स्थिति से उबर सकते हैं।  
यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि यह सब कुछ अखिलेश यादव ने अकेले किया है। इससे पहले उनके पिता और दोनों चाचा संरक्षक एवं रणनीतिकार की भूमिका अदा करते थे। इस चुनाव में वह अपनी पार्टी के निर्विवाद ‘सुप्रीमो’ के तौर पर उभरे हैं। अखिलेश यादव इस मामले में इतने सतर्क हैं कि उन्होंने कल तक अपने सियासी प्रतिस्पद्र्धी रहे चाचा शिवपाल यादव से हाथ तो मिलाया, पर उनकी पार्टी का सपा में विलय नहीं किया। वह शायद अब परिवार का कोई ‘बैगेज’ अपने ऊपर नहीं चाहते। उन्होंने ‘हेडलाइन मैनेजमेंट’ की कला भी सीख ली है। भाजपा के मंत्री-विधायकों को इसीलिए बारी-बारी से इस्तीफा देने के लिए कहा गया। इससे रैलियों पर रोक के बावजूद वह निरंतर चर्चा में रहे। हालांकि, उन्हें सावधान रहना होगा। गठबंधन की राह आकर्षक होने के बावजूद रपटीली है। चंद्रशेखर के झटके के बाद उन्होंने एलान भी किया कि अब एक मंत्री के अलावा किसी को सपा में नहीं लिया जाएगा।
क्या यह सब कुछ उन्हें चुनाव जिताने के लिए काफी है? 
इस सवाल का जवाब अभी नहीं दिया जा सकता। बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायावती शांत जरूर प्रतीत होती हैं, पर उन्होंने अपने 70 फीसदी से अधिक टिकट पहले ही बांट दिए। इनमें से कितने लोग जीतेंगे, इस पर भी अगली सरकार के गठन का दारोमदार होगा। इसी तरह, कांग्रेस ने 125 लोगों की जो पहली सूची जारी की है, उसमें 50 महिलाएं हैं। इनमें उन्नाव की बलात्कार पीड़िता की मां और शाहजहांपुर की आंगनबाड़ी कार्यकर्या भी हैं। धर्म और जाति के मुकाबले यह प्रयोग यकीनन अच्छा है, पर शायद खुद  पार्टीजनों को इस पर भरोसा नहीं है। यही वजह है कि कांग्रेस के सात में से चार विधायक अब तक पाला बदल चुके हैं। 
यहां यह मान लेने की गलती नहीं करनी चाहिए कि कुछ मंत्रियों-विधायकों की बगावत से भगवा दल इतना कमजोर पड़ गया है कि उसकी सरकार बन ही नहीं सकती। योगी के काम के साथ पार्टी के पास देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी का  चेहरा, सुगठित संगठन और अकूत संसाधन हैं। पर अनिश्चितता भगवा दल पर भी तारी है। उसे अपने असंतुष्टों और सहयोगियों को साधे रखने के लिए ज्यादा जोर लगाना पड़ रहा है।
कभी जिगर मुरादाबादी ने इश्क के लिए कहा था, इक आग का दरिया है  और डूब के जाना है। सत्ताप्रेमी सियासतदां के लिए यह चुनाव भी कुछ ऐसा ही साबित होने जा रहा है।